पूर्व दिशा अग्नि तत्त्व को प्रभावित करती है तथा इसके स्वामी इंद्र देव हैं। यह दिशा पितृ भाव की दिशा मानी गई है। इसे बंद करने या वास्तु नियमों के विपरीत निर्माण करने से मान-सम्मान को हानि, ऋण का न उतरना जैसी परेशानियां आती हैं।
पश्चिम दिशा वायु तत्त्व को इंगित करती है। इसके स्वामी वायु या वरुण देव हैं। वायु के समान चंचल मन को दर्शित करने वाली इस दिशा को बंद या दूषित करने से जीवन में निराशा, तनाव, रोजगार में रुकावट और अधिक खर्चे होने का डर बना रहता है।
उत्तर दिशा जल तत्त्व को प्रभावित करने वाली उत्तर दिशा मातृ भाव से जुड़ी है। इसके स्वामी कुबेर माने गए हैं। इस दिशा का खाली और पवित्र होना आवश्यक है। इस दिशा के दूषित या बंद होने से धन, शिक्षा एवं सुख की कमी जीवन भर बनी रहती है।
दक्षिण-पश्चिम दिशा को नैऋत्य कोण के नाम से भी जाना जाता है। इस दिशा के स्वामी नैरूत देव हैं। इसके दूषित होने से शत्रु भय, आकस्मिक दुर्घटना, चरित्र पर लांछन जैसी समस्याएं आती हैं।
उत्तर-पश्चिम दिशा यानी वायव्य कोण वायु तत्त्व और वायु देवता से जुड़ी है। इस दिशा के बंद या दूषित होने से शत्रु भय, रोग, शारीरिक शक्ति में कमी, आक्रामक व्यवहार देखने को मिलता है।
दक्षिण-पूर्व दिशा आग्नेय कोण के रूप में अग्नि तत्त्व को प्रभावित करती है। इसके स्वामी देव अग्नि हैं। इस दिशा के दूषित या बंद होने से स्वास्थ्य समस्या आती है तथा आग लगने से जान एवं माल को नुकसान पहुंचने का भय भी बना रहता है।
दक्षिण दिशा पृथ्वी तत्त्व एवं स्वामी यम से संबंधित है दक्षिण दिशा। इस दिशा का खुला और हल्का रखना दोषपूर्ण है। इस दिशा में दरवाजे और खिड़कियां होने से रोग, शत्रु भय, मानसिक अस्थिरता, कई अन्य बुराइयां आने लगती हैं।
उत्तर-पूर्व दिशा वास्तु शास्त्र में ईशान कोण के रूप में जानी जाती है। इस दिशा में मंदिर रखा जाता है। इसके दोषपूर्ण होने से साहस की कमी, अस्त-व्यस्त जीवन, कलह, कन्या संतान की अधिकता और बुद्धि भ्रष्ट होने का अंदेशा रहता है।
केंद्र या आकाश भवन के मध्य भाग को माना जाता है। ईशान कोण की तरह इस दिशा को भी स्वच्छ और पवित्र रखना आवश्यक माना गया है अन्यथा जीवन में कष्ट, बाधाएं, तनाव, कलह, चोरी आदि समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।