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भोजपुरी के ‘कबीर’ को नहीं मिला पूरा न्याय, भिखारी को क्यों भूल गया बिहार?

locationपटनाPublished: Dec 14, 2018 04:31:19 pm

Submitted by:

Gyanesh Upadhyay

भिखारी ठाकुर जन्मदिन : 18 दिसंबर – अनपढ़ और लोगों का बाल बनाने वाले भिखारी ठाकुर में शेक्सपीयर से भी ज्यादा खूबियां थीं।

भिखारी ठाकुर जन्मदिन : 18 दिसंबर

भिखारी ठाकुर जन्मदिन : 18 दिसंबर

पटना। मशहूर यायावर लेखक राहुल सांकृत्यायन ने भिखारी ठाकुर को भोजपुरी का शेक्सपीयर कहा था। हालांकि भिखारी ठाकुर एक अलग ही तरह के बहुमुखी व्यक्तित्व थे, और कहना ही हो, तो उन्हें भोजपुरी का कबीर बोलना ज्यादा सही होगा। 18 दिसंबर 1887 को वर्तमान सारण जिले के कुतुबपुर में भिखारी ठाकुर का जन्म एक गरीब परिवार में हुआ था। नाई का पुस्तैनी काम था।
भोजपुरी या बिहार में विगत 100 वर्ष में भिखारी ठाकुर से बड़ा कोई कलाकार नहीं हुआ है, लेकिन उन्हें याद करने की औपचारिकता भी ठीक से नहीं निभाई जाती है। हर वर्ष 18 दिसंबर को उनका जन्मदिन आता है और शायद ही किसी वर्ष भिखारी ठाकुर पर कोई बड़ा आयोजन होता है। आम तौर पर कुछ लोग स्वयं आगे आकर यदि पहल न करें, तो भिखारी ठाकुर के गांव कुतुबपुर से पटना तक कोई कार्यक्रम ही नहीं हो। दूसरा कोई राज्य होता, तो वह अपने इतने बड़े लोक कलाकार को मुख्यधारा में रखकर चर्चा में रहता। अपने राज्य का ब्रांड बना लेता।
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शेक्सपीयर और भिखारी
शेक्सपीयर नाटक लिखते थे और अभिनय भी करते थे। तुलना ही करें, तो शेक्सपीयर की तुलना में भिखारी में ज्यादा योग्यता थी। भिखारी नाटक लिखते थे, उसे निर्देशित करते थे, निर्माता भी वही थे, संगीतकार, गीतकार, गायक, अभिनेता और नर्तक भी थे। इन हर विधाओं में भिखारी की अपनी शैली थी। वे पढ़े-लिखे या अभिजात्य वर्ग के नहीं थे। बाल काटने वाले नाई थे और उन्होंने जो भी सीखा था, समाज से सीखा था।

भिखारी को भोजपुरी का कबीर क्यों कहा जाए?
भिखारी के नाटक जमीनी हकीकत पर आधारित होते थे। वे यथार्थवादी नाटककार थे। उन्होंने अपने नाटकों के माध्यम से समाज में फैली कुरीतियों पर प्रहार किया। कई बार वे हमले या आलोचना के भी शिकार हुए। जातिवाद, भेदभाव, पितृसत्तात्मक समाज, विधवा शोषण, अनैतिकता, बेटी बेचने के रिवाज पर उन्होंने करारा प्रहार किया। उनकी खूब आलोचना हुई, लेकिन उन्होंने गांव-देहात में भी सच बोलने का खतरा उठाया। छोटी और बड़ी जात के लोगों की भी नाराजगी मोल ली, लेकिन झुके नहीं। कबीर जुलाहे थे और भिखारी नाई। बड़े कलाकार होने के बावजूद जब कोई बोलता था, तो वे हजामत बना दिए करते थे।

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भिखारी क्यों हैं नापसंद?
बिहारी जातिवादी राजनीति ने भिखारी को कभी पसंद नहीं किया। भिखारी ने चूंकि अपनी जाति की कमियों को भी नहीं छोड़ा, इसलिए अपनी जाति के लिए भी वे कोई खास गर्व का विषय नहीं माने जाते हैं। भिखारी समाज की कमियों पर प्रहार करते थे। धार्मिक आडंबरों पर प्रहार करते थे। ब्राह्मणवाद पर हमले करते थे। बड़ी जाति के लोगों को बिना डरे सही बात बताते थे, सच बोलते थे, साधारण इंसान की तरह रहते थे, इसलिए जब वे जीवित थे, तब भी बिहार सरकार ने उन्हें ज्यादा तवज्जो नहीं दी। उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया, लेकिन उन्हें या उनकी कला को आगे बढ़ाने के लिए जो प्रयास करने चाहिए थे, वो नहीं किए गए। नाच या बिदेशिया शैली को बचाने के लिए बिहार सरकार ने अपनी ओर से कोई प्रयास नहीं किए। वर्ष 1971 में 10 जुलाई को भिखारी का 83 की उम्र में निधन हो गया। भिखारी के नाम से एक पुरस्कार दिया जाता है। उनके नाम से आज कोई अकादमी नहीं है, कोई संग्रहालय नहीं है। उनकी किताबें भी आसानी से उपलब्ध नहीं होती हैं। निजी नाटककार ही भिखारी की यादों को जीवित रखे हुए हैं।

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