हम बात कर रहे है कानूजा गांव की। इस गांव में पिछले कई सालो से बैल भडक़ाने की परम्परा चली आ रही है। जिसे आज भी साकार की जाती है। दिपावली के दूसरे दिन देश भर में लोग सवेरे एक दूसरे के घर पर जाकर दिपावली की शुभकामनाएं देते है। मिठाईयो का आदान प्रदान होता है। लेकिन कानूजा गांव में इस दिन कुछ अलग ही मौहाल देखने को मिलता है। यहां सवेरे सात बजे से ही गांव की चौपाल पर किसान अपने बैलो को सजा कर लेकर पहुंचते है। बैलो की पूजा की जाती है। इनके गले में कपड़े में नारियल व रूपए बांधे जाते है। इसके बाद बैलो के पीछे पटाखे फोड़े जाते है। जिनकी आवाज से भडक़े बैल दौड़़ते है। इनके भडक़े बैलो के गले में कपड़े से बंधे नारियल व रूपए प्राप्त करने की युवाओ में हौड सी मचती है। भागते बैल को रोक उसके गले से रूपए निकाले के फेर में दर्जनो लोग घायल हो जाते है। जिसे नजर अंदाज कर अन्य युवा दौड़ में शामिल हो जाते है। दोपहर एक बजे तक गांव में यही माहौल रहता है। इसके बाद लोग अपने घरो को लौट जाते है। ये परम्परा कानूजा के आस पास के आधा दर्जन अन्य बाडिय़ो में भी साकार होती है।
आस पास के गांवो से पहुंचते किसान
आस पास के गांवो से पहुंचते किसान
इस परम्परा में हिस्सा लेने के लिए कानूजा सहित आस पास के गांवो से भी किसान अपने बेलो को तैयार कर लेकर पहुंचते है। युवा दूर से ही बैलो पर पटाखे जलाकर फैक देते है। भडक़े बेल भीड़ को कुचलते हुए भागते है। वे एक गली से दूसरी गली में होकर वहां से बच निकलने का जतन करते है। लेकिन युवा उन्हे घेर कर दुबारा उसी चौक में ले जाते है। कई युवा भगदड में नीचे गिर घायल हो जाते है तो कईयो को बैल अपने सिंगो से ऊछाल फैक देता है।
छतो पर चढ देखती नजारे
छतो पर चढ देखती नजारे
कानूजा सरकारी स्कूल के पास चौक है। जहां पर ये परम्परा साकार की जाती है। महिलाए व बच्चे भगदड़ से बचने के लिए मकानो की छतो पर चढ कर इस परम्परा को निहारते है। गांव में इस कदर आतिशबाजी होती है कि पूरा गांव गूंज उठता है। भगदड़ से रेत का गुब्बार भी उठता है। चहुं ओर शोर सराबे की गंूज सुनाई देती है।