खैर, हम बात कर रहे थे खराई प्रजाति के ऊंटों की। फकीरनी जाट और रेबारी समुदाय के लोग इन ऊंटों का पालन करते हैं। अब ये लोग अहमदाबाद, भरूच और भावनगर की ओर कूच करने लगे हैं। रेगिस्तान के जहाज के रूप में विख्यात ऊंट के चौड़े गद्दीदार पैर रेत पर आसानी से आगे बढ़ते हैं। कच्छ के शुष्क क्षेत्रों में पाई जाने वाली ये नस्ल रेगिस्तान या समुद्र में भी दिखाई देती है। दक्षिणी गुजरात के तटीय क्षेत्रों में रहने वाले ये ऊंट एक विशेष प्रकार के सदाबहार पौधे को खाते हैं और मानसून में मैनग्रूव द्वीप (इन्हें बेट भी कहते हैँ) तक पहुंचने के लिए पानी में 3 किलोमीटर से भी अधिक की यात्राएं करते हैं। इन ऊंटों के मुलायम और लंबे बालों से ऊंटपालक पायदान, छोटा गलीचा और शॉल बनाते हैं, जो वाकई काफी सुंदर होते हैं, इन ऊंटों को त्वचा संबंधी बीमारियां कम होती हैं, जबकि सामान्यत: अन्य प्रजातियों के ऊंटों में उदर संबंधी एवं प्रोटोजोन परजीवी जनित अन्य संक्रामक बीमारियां पाई जाती हैं।
सरकार चरवाहों को ना तो कोई चिकित्सकीय सहायता उपलब्ध करवाती और ना ही टीकाकरण आदि की सुविधा देती। खराई प्रजाति के ऊंट पालकों को अब पारम्परिक ज्ञान के अतिरिक्त भी ऊंटपालन के लिए मदद की जरूरत है। चूंकि अब ऊंट गाड़ी हांकने या खेत में जुताई के काम नहीं आते। इसलिए हमें बेहतर जीवन के लिए ऊंटनी के दूध पर फोकस करना चाहिए। खराई पालकों ने इसकी पहल की है। लेकिन गुजरात सरकार अपने तटीय इलाकों का औद्योगिकीकरण कर रही है। इनसे चारागाह की राह भी अवरुद्ध होती है। अगर हमें खराई प्रजाति के ऊंटों को बचाना है तो हमें सदाबहार पौधे भी बचाने होंगे। विकास के नाम पर थोड़ी सी दूरी पर बंदरगाह बनाने की जरूरत नहीं है। हमें जरूरत है ऊंटों की।