scriptसांस्कृतिक दुष्चक्र में ट्रैप्ड हम | Trapped in the cultural vicious cycle | Patrika News

सांस्कृतिक दुष्चक्र में ट्रैप्ड हम

locationजयपुरPublished: May 04, 2018 04:05:12 pm

इस मोबाइल जीवी युग के प्रणेता हम लाभ-हानि, कर्म-अकर्म, अहमन्यता-सामाजिकता का व्याकरण बिना चूके रट लेना चाहते हैं !

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इस मोबाइल जीवी युग के प्रणेता हम लाभ-हानि, कर्म-अकर्म, अहमन्यता-सामाजिकता का व्याकरण बिना चूके रट लेना चाहते हैं !

जिंदगी कितनी एब्सर्ड हो चली है इसका अंदाजा कभी कभी ही लग पाता है ! नौकरी की भागमभाग, सड़कों का ट्रैफिक, संबधों की उलझन, भविष्य की चिंता, पानी-बिजली फोन के बिलों, बच्चों की पढ़ाई और भी सैकड़ों कामों-तनावों-हड़बड़ियों के बीच जीते हम ! वक्त, पैसा और लगन की त्रयी के बिना कहां हो पाता है जीवन रूपी नाटक का एक भी अंक पूरा ! हम रोज सोचते हैं कि शायद आज का ही दिन ऐसी हड़बड़ी और रेलमपेल का आखिरी दिन था – कल तो जरूर सुकून का दिन आएगा और हम अपने अधूरे छूट गए कामों को कर पाएंगे! पर ऐसा सुकून का दिन तलाशना एक दिवास्वप्न सा लगने लगता लगता है! तारे गिनने, उगते सूरज को देखने, बादलों की बनती-संवरती छवियों को निहारते चले जाने या कि खुद से बात करने के बीच शोर है, बाजार है, घड़ी है, गाड़ियां और बिल्डिंगें हैं!
इस मोबाइल जीवी युग के प्रणेता हम लाभ-हानि, कर्म-अकर्म, अहमन्यता-सामाजिकता का व्याकरण बिना चूके रट लेना चाहते हैं ! मैं-मेरा-मुझे की लगन में डूबा मन बाजार को अपना सबसे बड़ा हितैषी गुरु मानता है! गड़बड़ी, जल्दबाजी, ठेलमठाली के मंत्र के बिना भी क्या शहर में रहा जा सकता है? यहां हमेशा बेहतर चुनाव करना होता है! यहां के गणित को हमेशा अन्यों से अधिक गहराई से समझते रहना होता है! यहां प्रगति और विकास के व्यक्तिगत पाठों को लगातार पढ़ते चलना होता है! यहां समाज, सामाजिकता, सामाजिक नैतिकता, सामाजिक निष्ठा जैसे आउटडेटिड लफ्जों पर सिर्फ हंसना होता है! जयशंकर प्रसाद की इडा का हर तरफ बोलबाला है… कहां है श्रद्धा? नहीं श्रद्धा को ढूंढना बेमानी है! वह हमारे भीतर ही तो है! पर हम नहीं सुनेंगे उसकी आवाज, क्योंकि वह जो कुछ कहेगी उस से हम बहुत अच्छे से वाकिफ हैं, पर वह वाकिफ नहीं है इस सच से कि हम ट्रैप्ड हैं जिस सांस्कृतिक दुष्चक्र में, वहां केवल वही सर्वाइव करेगा जो सबसे ज्यादा निष्ठुर होगा! श्रद्धा!! तुम्हारी आवाज सुनने के लिए जो दो पल ठहरे तो कुचले जाएंगे पीछे आने वाली भीड़ के पैरों तले!

तो आज हमारे पास बहाने हैं, वाजिब कारण हैं, लघुता का बोध है, जिनके आगे हम लाचार हैं ! सो वही, केवल वही कर पा रहे हैं जिससे कि केवल जीवन चलता रहे सकुशल! कोई बड़ा सपना, कोई बड़ा संघर्ष, कोई बड़ा जज्बा नहीं, जिसके लिए हमारे भीतर बची रह गई हो थोड़ी निष्ठा, थोड़ा समर्पण! क्या हम कभी नहीं चुन पाएंगे अपनी पसंद की हवा… सांस लेने के लिए, और क्या अब हम कभी नहीं महसूस कर पाएंगे अपने खंडित व्यक्तित्व को!
जिंदगी की इस एब्सर्ड एकांकी का कोई तो सार्थक, ओजमय, कर्ममय निष्कर्ष पाना होगा!!

नीलिमा चौहान
(ब्लॉग से साभार)

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