यह सब शुरू हुआ, सात माह पूर्व कर्नाटक की जनता द्वारा दिए खण्डित जनादेश के कारण। कुल 224 के सदन में उसने भाजपा को 104 सीटें दीं, तो कांग्रेस और जेडी (एस) को क्रमश: 80 और 37 सीटें। शेष में से एक सीट बसपा और दो निर्दलीयों के पास थी। विवाद तब भाजपा द्वारा सरकार गठन के साथ ही शुरू हो गया था क्योंकि कांग्रेस और जद (एस) के 117 सीटों के दावे के बावजूद राज्यपाल ने भाजपा को मौका दिया। तब राजनीतिक ड्रामा ऐसा चला कि सर्वोच्च न्यायालय तक ने आधी रात मामले की सुनवाई की। फिर कांग्रेस-जद (एस) की सरकार बनी तो हर दिन उसे गिराए जाने की चर्चाएं चलती रहीं। इसके लिए कभी भाजपा के राष्ट्रीय और प्रादेशिक नेतृत्व पर अंगुलियां उठीं तो कभी केन्द्र सरकार और राज्यपाल पर। कभी गठबंधन के दोनों हिस्सेदारों में खींचतान इसकी वजह बनी तो अब मंगलवार को सरकार को समर्थन दे रहे दो निर्दलीय विधायकों ने समर्थन वापस ले लिया।
यदि 117 विधायकों का गठबंधन एकजुट रहे तो सरकार को कोई संकट नहीं है, लेकिन गठबंधन भाजपा पर उसके विधायकों की खरीद-फरोख्त के आरोप लगा रहा है। अस्थिरता का माहौल उस समय और गहराता लगा, जब भाजपा अपने विधायकों को एकजुट रखने के लिए गुरुग्राम (हरियाणा) ले गई। गठबंधन ने उस पर अपने तीन विधायकों को मुम्बई ले जाने का भी आरोप लगाया है। यहां सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि क्या पूरे पांच साल कर्नाटक में यही सब चलता रहेगा? क्या स्पष्ट बहुमत होते हुए भी कोई एक पार्टी या गठबंधन अपनी सरकार नहीं चला पाएगा? यह भी, कि क्या देश-प्रदेशों की सरकारें और तमाम राजनीतिक दल मिलकर ऐसी परिस्थितियों के लिए सर्वसम्मति से कोई नियम नहीं बना सकते हैं? पिछले तीन दशकों से कमोबेश यह परम्परा सी बन गई है कि खण्डित जनादेश या फिर अल्प बहुमत वाली स्थितियों में, विधायकों की खरीद-फरोख्त के आरोप लगने लग जाते हैं। उनका अपहरण और बाड़ाबंदी होने लगती है। क्या हमारे निर्वाचित जन प्रतिनिधियों को ऐसी स्थितियों में जरा भी शर्म का अहसास नहीं होता? क्यों नहीं वे अपने-अपने राजनीतिक दलों पर इस बात के लिए दबाव डालते कि वे उन्हें जनता की निगाह में जलील नहीं करें? क्यों नहीं राज्यपालों पर यह कानूनी बंदिश हो कि वे सिवाय विधानसभा के, बहुमत का फैसला कहीं और करने का प्रयास नहीं करेंगे?
इस दृष्टि से दलबदल निरोधी कानून को भी नए सिरे से बनाने की जरूरत है। दलबदल का मतलब ही सदस्यता का समाप्त होना माना जाना चाहिए। आधे बदल लेंगे, चौथाई बदल लेंगे, मन से बदलेंगे या दबाव में बदलेंगे, किन्तु-परन्तु कुछ नहीं होना चाहिए। तभी इस तरह के हालात से निपटा जा सकता है। आज से तीन दशक पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने जब दलबदल कानून के बारे में सोचा, तब उनका मौलिक विचार यही था। बाद में राजनीति में सिके-तपे लोगों को लगा कि इससे तो आयाराम-गयाराम का दौर ही इतिहास की बात हो जाएगी, तो उन्होंने उसमें इतने बदलाव कर दिए कि कानून बनने के पहले ही उस विचार की हत्या हो गई। एक और सिलसिला, इन दिनों अपने बहुमत को दिखाने या दूसरे को अल्पमत में लाने के लिए निर्वाचित जनप्रतिनिधियों से इस्तीफा दिलवाने का चला है। कानूनन इस पर रोक लगनी चाहिए। फिर भी कोई इस्तीफा दे, तो उस पर कम से कम छह वर्ष के लिए कोई भी चुनाव लडऩे की पाबंदी लगनी चाहिए। तभी हम भारतीय लोकतंत्र की मर्यादा को तार-तार होने से बचा पाएंगे। उम्मीद है हमारे लोकतंत्र के भाग्य विधाता इस दिशा में जरूर सोचेंगे।