चुनावोत्तर परिदृश्य में भी जातियों से जुड़ेे विषय थमने का नाम नहीं ले रहे। कहीं जातीय मुद्दों से जुड़े विषयों पर तनाव के चलते हुई हिंसा और आगजनी के फलस्वरूप दर्ज आपराधिक मुकदमों को लेकर, तो कहीं संवैधानिक पदों पर बैठते ही जनप्रतिनिधियों द्वारा खुल्लम खुल्ला अपनी जाति को प्राथमिकता देने की बातें करने से राजनीतिक माहौल में गर्माहट है। इसीलिए तो दुनियाभर के राजनीति विज्ञानियों को फिर से कहने का मौका मिल गया कि भारतीय राजनीति में विकास की बातें भले ही होने लगी हों, लेकिन हकीकत में भारतीय राजनीतिक व्यवस्था जतियों के इर्द-गिर्द ही घूम रही है।
1947 में धर्म के आधार पर बांटे गए हिंदुस्तान में जातियों की मौजूदा भूमिका को देखकर 21वीं सदी में भी इस विश्लेषण से सहमत होने के कारण हैं। लोकतंत्र व्यक्ति को इकाई मानता है, किसी जाति समूह को नहीं। राजनीतिक समानता की बदौलत मिले वयस्क मताधिकार ने संख्याबल की महत्ता को बढ़ा दिया है। और जब राजनीति का प्रमुख ध्येय चुनाव जीतना हो जाए तो संख्याबल को संगठित रखने वाली जाति और जातीय संगठनों की भूमिका बढऩा लाजिमी है।
हमें भी मानना पड़ेगा कि जातीय संगठन अपनी जाति के लोगों को राजनीतिक दलों के मुकाबले संगठित रखने में ज्यादा सफल रहे हैं। यही ध्यान में रखते हुए राजनीतिक दल जातीय संगठनों और उनके नेताओं को पूरी तवज्जो देते हैं और राजनीतिक सत्ता प्राप्ति के लिए उनका उपयोग करने में कामयाब रहे हैं। जातियों के इस कदर इस्तेमाल का दूसरा पहलू यह है कि हमारी सामाजिक जातियां संगठित होकर राजनीतिक शक्ति बनकर राजनीति पर हावी होने लगी हैं और आवश्यकता पडऩे पर अपने जातीय हितों के लिए दबाव समूहों की तरह काम करने लगी हैं। तभी तो जयप्रकाश नारायण जैसे स्टेट्समैन ने जाति को एक महत्त्वपूर्ण दल तक कह डाला था।
इसे राजनीतिक दलों की मजबूरी ही समझिए कि जन प्रतिनिधियों के लिए उम्मीदवार चयन में उन्हें जातीय समीकरणों का ध्यान रखना पड़ता है। ऐसा करने से राजनीतिक दलों के लिए भी जीत में सहूलियत हो जाती है क्योंकि जातीय संगठनों द्वारा समर्थित उम्मीदवारों को जिताने में उसकी जाति के संगठन भी पूरी ताकत झोंक डालते हैं। जाति आधारित उम्मीदवार को अपनी जाति का बना बनाया संगठन और संसाधन भी मिल जाते हैं। जहां तक मतदाताओं का सवाल है वे सामाजिक प्राणी पहले हैं, मतदाता बाद में। इसे जातीय व्यवस्था का सामाजिक प्रभुत्व ही समझिए कि मतदाताओं का बड़ा तबका भले ही बाट विकास की जोहता रहा हो, लेकिन मतदान के वक्त सब गिले-शिकवे भुलाकर अपना मत जातीयता को समर्पित कर आता है।
जातीय प्रभाव स्थानीय राजनीति में तो है ही, केरल, तमिलनाडु, बिहार, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, हरियाणा और राजस्थान जैसे राज्यों की राजनीति में भी इसका अच्छा-खासा दबदबा है। गनीमत मानिए कि राष्ट्रीय स्तर तक आते-आते जातीय प्रभुत्व का असर क्षीण होने लगता है। अचरज की बात तो यह है कि जातीयता के कारण उत्पन्न सामाजिक विषमताओं के प्रखर आलोचक रहे लोग भी मौका मिलते ही, गुपचुप तरीके से ही सही, अपने तात्कालिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए जातियों की बैसाखी का सहारा लेने से नहीं चूकते। फिर वे सार्वजनिक तौर पर जातीय समभाव के आदर्शों की बड़ी-बड़ी बातें भी करने लगते हैं, शायद यह सोचकर कि जनता को उनकी ये होशियारी समझ में नहीं आती होगी। यह विरोधाभास कभी भी विस्फोटक स्थिति का कारण बन सकता है।
सवाल उठता है कि इन हालातों के लिए राजनीति को अकेले दोष देना कितना ठीक है, जबकि जातीयता पूरी व्यवस्था में किसी न किसी रूप में विद्यमान है। आमतौर से विद्यालयों में यूं तो बच्चों को अपने सहपाठियों की जाति का पता नहीं रहता है, लेकिन सरकारी अनुदान या सहायता की बात चलते ही जाति को लेकर छोटी उम्र में ही कान खड़े होने लगते हैं। जाहिर है उनकी इस जिज्ञासा को घर और समाज में जैसा जवाब मिलेगा, मानसिकता भी वैसी ही बनेगी।
जाति आधारित आरक्षण व्यवस्था ने भी जातियों का संस्थायीकरण किया है। अपनी जाति में विवाह के पक्ष में दी जाने वाली पारिवारिक दलीलों ने भी जातिगत धारणा को मजबूती दी है। जनगणना में जाति को शामिल करने की बातों ने भी जातीय भावनाओं को उकेरा है। हम क्यों भूल जाते हैं कि 1871 से 1931 के बीच हुई जनगणना में जाति को शामिल करने के पीछे अंग्रेजों का मकसद भारतीय समाज को धर्म के साथ-साथ जातियों में बांटना था, जिसे विरोध के चलते 1931 मे रोकना पड़ा था। जातीय व्यवस्था के मंडन और खंडन की साथ-साथ चलने वाली यह स्थिति मौजूदा पीढ़ी के लिए बड़ी उलझनपूर्ण है।
इस सबके बावजूद हमें मानना पड़ेगा कि भारतीय समाज में जातीय विभाजन, धीरे-धीरे ही सही, शिथिल जरूर पड़ता जा रहा है। यह शिथिलता शहरों-कस्बों में ज्यादा कारगर हो पाई है, लेकिन ग्रामीण अंचल, जहां असल में देश बसता है, में अभी भी स्थितियों में खास बदलाव नहीं आ पाया है। इसके चलते जहां जातीय वैमनस्यता ने राष्ट्रीय एकता के रास्ते में बाधा खड़ी की है, वहीं जातीय प्रभुत्व ने हमारी प्रगतिशील और आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था को अपने मूल स्वरूप के मुताबिक काम नहीं करने दिया है। यहां भी उम्मीद की किरण राजनीति के सूरज से ही निकल सकती है, क्योंकि आज हमारे जीवन में राजनीति केंद्रीय भूमिका में है और किसी भी बड़े बदलाव के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति बेहद जरूरी है।
चूंकि जाति व्यवस्था के दंश को निकाल फेंकने का माद्दा भी राजनीति में ही है तो शुरुआत की उम्मीद भी राजनीतिक दलों से ही की जानी चाहिए, जिसके लिए जनता-जनार्दन को उनका साथ देना होगा। तभी गांव-शहर-कस्बों में और अच्छे से भाईचारा कायम हो सकेगा।
(लेखक, भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, नई दिल्ली में पदस्थापित।)