बड़े-बड़े पदों पर बैठे नेता आमजन को तो भाईचारे की सलाह दे रहे हैं लेकिन स्वयं उस रास्ते पर नहीं चल रहे। सत्ता की राजनीति ने देश के माहौल को दूषित बना दिया है। साम्प्रदायिकता, भ्रष्टाचार और वंशवाद के नाम पर होने वाली तकरार अब ताजमहल, लालकिला, संसद और राष्ट्रपति भवन जैसे स्मारकों पर भी होने लगी है। हालांकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी कह रहे हैं कि धरोहरों पर गर्व किए बिना कोई भी देश आगे नहीं बढ़ सकता। लेकिन एक दल का नेता ताजमहल बनाने वालों को गद्दार बता रहा है।
दूसरा पक्ष भला शांत रहने वाला कहां? पूछ रहा है कि दिल्ली का लालकिला भी गद्दारों ने बनाया था तो क्या प्रधानमंत्री वहां से तिरंगा फहराना छोड़ देंगे। तीसरा पक्ष तंज कस रहा है कि ताजमहल ही क्यों राष्ट्रपति भवन को भी ध्वस्त कर दिया जाना चाहिए। जनता की मूलभूत सुविधाओं पर बहस करने से कतराने वाले इन जनप्रतिनिधियों के पास ऐसे गैर जरूरी मुद्दों पर बहस करने को समय ही समय है। दीपोत्सव के इस पर्व पर जब समूचा देश जगमग कर रहा है तो देश चलाने का दावा करने वाले इन नेताओं के मन में इतना अंधेरा क्यों है?
महत्वपूर्ण ये नहीं कि ताजमहल किसने बनवाया? महत्वपूर्ण ये है कि प्रेम के प्रतीक समझे जाने वाले ताजमहल को देखने देश-दुनिया से लाखों लोग हर साल आगरा जाते हैं। कितने परिवारों की रोजी-रोटी इसी ताजमहल से चलती है। दीपावली की रोशनी में जनता को ऐसे चेहरों को भी पहचानना चाहिए जो स्मारकों के नाम पर भी राजनीति करने से बाज नहीं आ रहे। ऐसे नेताओं को चिंता ताजमहल या लालकिले की नहीं बल्कि इसके नाम पर मिलने वाले चंद वोटों के लालच की है।