इस तरह वसूली गई राशि से क्षतिपूर्ति वनीकरण कोष स्थापित है। इसके जरिए वैकल्पिक वनीकरण किया जाता है, जिसे प्रतिपूरक वनीकरण भी कहते हैं। यह काम प्रतिपूर्ति वनीकरण कोष प्रबंधन और योजना प्राधिकरण (सीएमपीए) अधिनियम 2016 के प्रावधानों के अनुसार किया जाता है।
वनों के विनाश की क्षतिपूर्ति के लिए बनाए गए प्रतिपूरक वनीकरण कोष में केंद्र सरकार को मिल चुकी करीब पचास हजार करोड़ रुपए की विपुल धनराशि बताती है कि देश में विकास परियोजनाओं के नाम पर व्यापक पैमाने पर जंगलों का विनाश जारी है। अप्रेल के दौरान केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन राज्यमंत्री डॉ. महेश शर्मा ने ही संसद को प्रतिपूरक वनीकरण कोष में अब तक जमा राशि के बारे में जानकारी दी थी।
इतनी बड़ी राशि की वसूली से जाहिर है कि वनों में और इर्द-गिर्द रहने वाले आदिवासी और वनवासी जैसे हाशिए के समुदायों के प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट बड़े पैमाने पर जारी है। उदाहरण के लिए, 2014-2017 के दौरान केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने 1419 विकास परियोजनाओं को मंजूरी दी। इनके तहत 36575 हेक्टेयर वन भूमि को गैर वन भूमि में रूपांतरित कर दिया गया और बदले में 9700.50 करोड़ रुपए वसूले गए।
प्रतिपूरक वनीकरण कोष अधिनियम अपने आप में कानून का मखौल उड़ाता है। कारण, यह विकास परियोजनाओं से प्रभावित आदिवासियों और दूसरे वनवासियों के विस्थापन, दु:ख-दर्द और आजीविका के विनाश का कारण बन रहा है। एक ओर, उनके खाद्यान्न संसाधनों को मौद्रिक मूल्य के तराजू पर तोला जा रहा है, दूसरी ओर राज्य के खजाने में क्षतिपूर्ति के रूप में इसके जमा होते जाने से उन्हें अपने हक से वंचित किया जा रहा है।
अधिनियम के प्रावधानों के अध्ययन से पता चलता है कि गैर-सरकारी क्षेत्र के वन प्रबंधन पर आदिवासियों और वन आधारित ग्रामवासियों की अपेक्षा ज्यादा भरोसा किया जा रहा है। वनों के विनाश के बदले में व्यापार-उद्योग से वसूल की गई राशि से बने कोष को वृक्ष-कटान से प्रभावित क्षेत्रों में वृक्षारोपण और आदिवासियों, ग्रामवासियों के पुनर्वास आदि पर खर्च किया जाना चाहिए। लेकिन इस मामले में कोई पुख्ता व्यवस्था नई वन नीति (२०१८) के मसौदे में नहीं मिलती है।
उच्चतम न्यायालय ने भी अप्रेल में पर्यावरण संरक्षण के नाम पर जमा पैसे के दुरुपयोग और इस्तेमाल न किए जाने को लेकर चिंता जाहिर की थी। शीर्ष अदालत ने यहां तक कहा था कि कार्यपालिका वन संरक्षण के नाम पर संबंधित पक्षों को मूर्ख बना रही है। केंद्र और राज्य सरकारों के पास लंबित यह धनराशि कुल मिलाकर करीब एक लाख करोड़ रुपए बताई जाती है।
अधिनियम का आदिवासी और वनवासी विरोधी चरित्र यहीं खत्म नहीं होता। प्रतिपूरक वनीकरण के नाम पर वनाधिकार अधिनियम को ताक पर रख हाशिए के लोगों की जमीन हड़पी जा रही है। 2006 में लागू किया गया वनाधिकार अधिनियम वनों पर निर्भर समुदायों का वन्य संसाधनों पर अधिकार स्थापित करता है। उनके वन संरक्षण और प्रकृति विषयक अनुभव और ज्ञान को भी इसमें स्वीकार किया गया है। यह अधिनियम वन भूमि को वन आधारित समुदायों को हस्तांतरित करने का अवसर देता है, लेकिन एक ओर एक दशक बाद भी इसका क्रियान्वयन मोटे तौर पर लंबित है तो दूसरी ओर प्रतिपूरक वनीकरण कोष अधिनियम इसकी राह में बाधा बन रहा है।
वन विभाग की नौकरशाही को इकतरफा प्रतिपूरक वनीकरण कोष का अधिकार सौंपना और निजी या सामूहिक भूमि पर प्रतिपूरक वनीकरण का असीमित अधिकार दे देना वास्तव में संस्थागत रूप से वनाधिकार अधिनियम को निष्क्रिय करने का काम है। अध्ययन बताते हैं कि इस अधिनियम के तहत जिन सघन वन क्षेत्रों में वन संसाधनों और वन भूमि पर आदिवासियों और वनों पर निर्भर दूसरे लोगों ने दावे किए होते हैं, उन्हीं सघन वन क्षेत्रों में वन विभाग के अफसर प्रतिपूरक वनीकरण की परियोजनाओं का क्रियान्वयन करने लगते हैं।
प्रतिपूरक वनीकरण के विभिन्न पारिस्थितकीय और सामाजिक दुष्परिणाम भी सामने आए हैं। इसके तहत वाणिज्यिक वृक्षारोपण से वन विविधता को अपूर्णनीय क्षति पहुंची है। आज आवश्यकता है प्रतिपूरक वनीकरण कोष के माध्यम से आदिवासियों और वनवासियों के सशक्तीकरण की और वनाधिकार अधिनियम के तहत जंगलों के संरक्षण और पुनस्र्थापन के लिए इन समुदायों की ग्राम सभाओं को संवैधानिक अधिकार देने की।