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सेना की शान और शहादत की समझ नहीं इन नेताओं को, एक दिन सीमा पर गुजार के तो देखें, छठी का दूध याद आ जाएगा

देश में राजनेताओं का जिस गति से स्तर गिरता जा रहा है, वह सोचनीय है।

Indian Army

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डॉ. उरुक्रम शर्मा

देश में राजनेताओं का जिस गति से स्तर गिरता जा रहा है, वह सोचनीय है। राजनीति के लिए और अपनी जमात को वोट बैंक की तरह बनाए रखने के लिए वे राष्ट्रीय हित को भी गौण कर रहे हैं। यहां तक सेना पर भी सवाल उठाने से बाज नहीं आ रहे हैं… जो रात-दिन सब कुछ छोड़कर सिर्फ देश की सेवा में लगी रहती है। पूरा देश उनकी सेवा और शहादत को सलाम करता है, लेकिन नेता सिर्फ सुर्खियों में रहने और अपना वजूद बनाए रखने के लिए सेना और देश के बारे में कुछ भी बोल देते हैं। यह भी नहीं समझते कि उनके इस तरह के देश विरोधी बयानों को दुश्मन देश के मीडिया चैनल कितनी प्राथमिकता से दिखाकर भारत विरोधी माहौल बनाते हैं।

भारतीय फौज नापाक पाकिस्तान के आतंकवादियों से विषम परिस्थितियों में लोहा ले रही है। पाकिस्तानी घुसपैठ को रोकने के हर संभव प्रयास कर रही है। ऐसे में सेना का हौसला अफजाई करने की बजाय देश के नेता उनका मनोबल तोडऩे का काम कर रहे हैं। क्या ऐसे नेताओं पर देश द्रोह का मुकदमा दर्ज नहीं होना चाहिए? क्या ऐसे नेताओं पर सदा के लिए चुनाव लडऩे पर रोक नहीं लगाई जानी चाहिए? क्यों नहीं देश की संसद देश और सेना के खिलाफ बोलने वालों के खिलाफ सीधे सलाखों में डालने और कठोरतम सजा के प्रावधान का कानून लागू करती है? कब तक फौजियों के खिलाफ देश सुनेगा? फौज के खिलाफ बोलने वालों को एक दिन के लिए ही सीमा पर भेज दो, उन्हें समझ में आ जाएगा।

हाल ही सांसद एवं एआईएमआईएम के प्रमुख असुद्दीन ओवैसी ने सुंजवान कैम्प पर आतंकी हमले में शहीद हुए जवानों को लेकर सांप्रदायिक रंग देने की घटिया कोशिश की, जो शर्मनाक है। ओवैसी ने कहा हमले में पांच कश्मीरी मुसलमानों ने बलिदान दिया है, इस बारे में लोग क्यों नहीं बोलते हैं। सेना में धर्म की राजनीति? किस सोच का परिचायक है? क्या ऐसा करने की किसी को इजाजत देनी चाहिए? भारतीय सैनिक आतंकियों से मुकाबला कर रहे हैं और देश के ही नेता शहादत को तिरंगे की जगह सांप्रदायिक स्वरूप देने में लगे हैं।

पिछले साल कांग्रेस के नेता एवं पूर्व सांसद संदीप दीक्षित ने आर्मी चीफ बिपिन रावत को सड़क का गुंडा तक कह डाला। हद हो गई… क्या यही है अभिव्यक्ति की आजादी? इतिहासकार एवं लेखक पार्थो चटर्जी तो दीक्षित से भी दो कदम आगे रहे। उन्होंने आर्मी चीफ रावत को जनरल डायर तक कह दिया। बीते वर्ष ही सीपीआई नेता और वामपंथी लीडर कविता कृष्णन ने कहा, कश्मीर में पत्थरबाजों को पाकिस्तान पैदा नहींं करता है, इन पत्थरबाजों को पैदा करते हैं, कश्मीर घाटी में मौजूद भारतीय सेना के जवान। इसी प्रकार पिछले साल केरल के सीपीएम सचिव बालकृष्ण ने सीमाओं को लांघते हुए यह तक कह डाला कि यदि सेना को खुली छूट दी गई, तो वो किसी की भी हत्या कर सकते हैं। किसी भी लड़की या महिला का बलात्कर कर सकते हैं।

विवादित बयानों के मामले में उत्तरप्रदेश के पूर्व मंत्री एवं समाजवादी नेता आजम खान का संबंध तो जैसे चोली-दामन की तरह रहा है। आजम ने भी पिछले साल सेना को लेकर अनर्गल आरोप लगाए। उन आरोपों को दोहराना भी मैं कलम की तौहीन समझता हूं, लेकिन उन पर कोई असर नहीं होता है। भाजपा के सांसद नेपाल सिंह ने इसी साल आतंकी हमलों में जवानों की शहादत पर कहा, सेना के जवान तो रोज मरेंगे, ऐसा कोई देश है, जहां जवान न मरता हो। हद हो गई, इन्हें यह भी पता नहीं कि जवान मरता नहीं, जवान शहीद होता है। कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने पिछले साल कहा, कश्मीर के लोग दोहरी मार झेल रहे हैं। उन्हें सेना भी मारती है और आतंकवादी भी।

अब सबसे बड़ा सवाल यह खड़ा होता कि सेना और देश के खिलाफ बोलने का हक नेताओं को किसने दे दिया? आखिर देश की खाकर इनमें देशभक्ति के बीज क्यों नहीं आते? किस दम पर नेता इस तरह की राजनीति करने की हिम्मत कर लेते हैं। हमें हमारी सेना और जवानों पर गर्व होना चाहिए। हमारा धर्म उनका हर पल मनोबल बढ़ाता है। उन्हें हर पल अहसास होना चाहिए कि पूरा देश उनके पीछे खड़ा है। उन्हें कितना दर्द होता होगा, जब नेताओं के इस तरह के घटिया बयान उनको पढऩे और सुनने को मिलते हैं। हथियारों का जितना वजन वो अपने कंधे पर रखकर चलते हैं, उसका अंश मात्र भी नेता उठाकर दस कदम चल नहीं सकते हैं। बातों के बादशाह इन नेताओं पर लगाम कसने के लिए देश की सरकार को सोचना चाहिए। सरकार मजबूरी में ऐसा ना करे, तो देश का सुप्रीम कोर्ट इनके खिलाफ एक्शन लेकर सबक सिखाए, ताकि नौजवानों का देश के प्रति प्रेम प्रगाढ़ हो और आने वाली पीढिय़ां मजबूत हो सकें।

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