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अब आरबीआइ की तकरार

locationजयपुरPublished: Nov 01, 2018 02:55:37 pm

Submitted by:

dilip chaturvedi

दुर्भाग्य की बात यही है कि सरकार न नव-उदारवाद की राह छोडऩे को तैयार है, न ही भाई-भतीजावाद वाले अर्थशास्त्र यानी क्रोनीज्म को। आरबीआई और वित्तमंत्री के बीच अचानक खड़ा हुआ मौजूदा तमाम विवाद इसी समस्या की उपज है। अच्छा होता उर्जित पटेल तब बोलते जब नोट बंदी का कहर बरपा था। लगता है अब बहुत देर हो चुकी।

RBI VS GOVERNMENT

RBI VS GOVERNMENT

अरुण माहेश्वरी, लेखक-विश्लेषक

सरकार आरबीआइ कानून की धारा 7 का इस्तेमाल कर आरबीआइ को कुछ उसी तरह घेरने पर विचार कर रही है, जैसे रात के अंधेरे में सीबीआइ को घेरा था। दशकों से आरबीआइ कानून की इस धारा का प्रयोग करने की नौबत नहीं आई। इसके तहत सरकार को आरबीआइ को निर्देश देकर उससे कोई भी काम कराने का अधिकार मिला हुआ है। ऐसा हुआ तो यह रिजर्व बैंक और सरकार के बीच नया टकराव साबित होगा।

हाल में रिजर्व बैंक के एक डिप्टी गवर्नर ने आरबीआइ की स्वायत्तता को कुछ यों परिभाषित किया था, मानो वित्त बाजार की सारी समस्याओं की जड़ आरबीआइ की स्वायत्तता का हनन हो। दूसरी ओर, जो चल रहा है उसे तर्कसंगत साबित करने वाले वित्तमंत्री अरुण जेटली, जो पेशेवर वकील भी हैं, ने सरकार के हस्तक्षेप को जायज बताते हुए आरबीआइ के सामने प्रति-प्रश्न रखा है कि 2008-2014 के बीच जब बैंकों की ओर से मनमाने ढंग से कर्ज दिए गए थे, तब रिजर्व बैंक की स्वायत्तता कहां चली गई थी?

जेटली इस मोटी-सी सचाई को नहीं देखना चाहते कि इन पांच साल में ही इतने बड़े पैमाने पर बैंकों का रुपया क्यों डूबा है और क्यों लोग रुपया लेकर आसानी से विदेश निकल भागे हैं। और कुछ नहीं तो वे ठहर कर इसी पर सोच सकते थे कि इस दौरान दिवालिया कानून में संशोधन का पूंजीपतियों की रुपया मारने की प्रवृत्ति पर क्या असर पड़ा है? (यदि मुद्रा नीति और कर्ज नीति की बाकी नीतिगत बातों को फिलहाल जाने भी दें तो!)

यह सच है कि यह पूरा विषय कोरी सैद्धांतिक बातों का नहीं है। उनसे सिर्फ यही जाहिर होता है कि वित्त मंत्रालय बैंकों के कामों में कुछ ऐसा दखल देता रहा है, जिनसे बैंक अधिकारी अब सहम-से गए हैं और उन्हें डर है कि अनियमितताओं का ठीकरा अंतत: उनके सिर ही फूटेगा।

बैंकों के इस मौजूदा और लंबे समय से चले आ रहे स्थायी संकट का ही तकाजा है कि अर्थनीति और बैंकिंग संबंधी समूची सोच और अर्थ खोती जा रही परिभाषाओं को चुनौती दी जाए। साथ ही आर्थिक जगत के विकासमान यथार्थ के उस अंतरनिहित सूत्र को देखा जाए, जो नियमों की पालना पर बल देने के बावजूद बार-बार अर्थनीति के संकट के रूप में और बैंकिंग में डूबत की खास समस्या के रूप में अपने को व्यक्त करता है। इसकी जड़ का स्थायी कारण जहां नव उदारवादी आर्थिक नीतियां हैं, वहीं भारत में इसका एक अतिरिक्त और तात्कालिक कारण है ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’।

लगातार तकनीकी क्रांति, तीव्र वैश्वीकरण और पूंजी की भारी उपलब्धता के कारण भारत जैसी पिछड़ी हुई अर्थव्यवस्था का आकार-प्रकार भी स्वाभाविक रूप में काफी फैल गया है, जो उसी अनुपात में निवेश की नई विवेकपूर्ण दृष्टि की अपेक्षा रखता है। इसी से विकसित देशों में स्टार्टअप्स का नया माहौल तैयार हुआ। पश्चिम में, खास तौर पर अमरीका में, इसके चलते तीन दशक में पूंजीपतियों की नई पौध तैयार हुई द्ग इंटरनेट पर आधारित उद्यमों से जुड़ी पौध, जिसने हर मामले में परंपरागत पूंजीपतियों को पीछे छोड़ दिया। इस मामले में एक विकासशील देश के नाते जो काम चीन ने किया, उसकी सारी संभावनाएं भारत में भी मौजूद थीं। लेकिन भारत सरकार इसे संभालने में विफल रही।

भारत में जो संसाधन उद्यमी और प्रतिभाशाली नौजवानों को उपलब्ध होने चाहिए थे, वे राजनीतिज्ञों के दोस्तों और भाई-भतीजों को, दूसरे शब्दों में ‘क्रोनीज’ को, सरकार की मदद से उपलब्ध होने लगे। परंपरागत पूंजीपतियों ने इंटरनेट आधारित उद्यमों पर एकाधिकार कायम किया और पुराने डूबते हुए उद्योगों के लिए सरकारी बैंकों से भारी मात्रा में धन बटोरा। नतीजतन उनके कुछ नए टेलिकॉम और इंटरनेट आधारित उद्योग तो फले-फूले, पर परंपरागत उद्योग संकट से मुक्त नहीं हो पाए। इसी बीच वित्त मंत्रालय ने डूबती कंपनियों को वित्त मुहैया कराने की नई जिम्मेदारी ले ली।

कहा जा सकता है कि बैंकों की स्वायत्तता के अंत की शुरुआत के लिए इतना ही काफी था। यह सिलसिला आगे भी इसी प्रकार अबाध जारी रहता, अगर नोटबंदी के जुनून ने बैंकों और पूरी अर्थव्यवस्था को भारी परिमाण में अतिरिक्त चपत न लगाई होती। अब इंफ्रास्ट्रक्चर डवलपमेंट एंड फाइनेंस कंपनी आईएलएंडएफएस की तरह के गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थान के संकट ने अर्थव्यवस्था को एक प्रकार से पंगु बना दिया है। आज नए निवेश के बाधित होने से अर्थव्यवस्था के संकुचन का नया संकट दरवाजे पर खड़ा दिखाई दे रहा है।

दुर्भाग्य की बात यही है कि सरकार न नव-उदारवाद की राह छोडऩे को तैयार है, न ही भाई-भतीजावाद वाले अर्थशास्त्र यानी क्रोनीज्म को। आरबीआइ और वित्तमंत्री के बीच अचानक खड़ा हुआ मौजूदा तमाम विवाद इसी समस्या की उपज है। अच्छा होता उर्जित पटेल तब बोलते जब नोट बंदी का कहर बरपा था। लगता है अब बहुत देर हो चुकी।

(राजनीतिक-आर्थिक विषयों पर लिखते हैं। ‘समाजवाद की समस्याएं’ और ‘सिरहाने ग्राम्शी’ चर्चित पुस्तकें।)

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