कानूनी व सांस्थानिक संदर्भों में खुद को बीजेपी से अलगाने के लिहाज से क्या कांग्रेस ‘स्वतंत्रता का एक नया घोषणापत्र’ लाना चाहेगी जो कांग्रेस के राज में लोगों को ऐतिहासिक रूप से मिली सुरक्षा के मुकाबले कहीं ज्यादा सुरक्षा प्रदान करता हो? इसे समझने के लिए केवल उन कानूनों पर नजर दौड़ा लें जो एक उदारवादी लोकतंत्र के माथे पर कलंक की तरह चिपके हुए हैं द्ग राजद्रोह का कानून, गैरकानूनी गतिविधि (निरोधक) कानून (यूएपीए), धर्मांतरण विरोधी कानून, सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम, आपराधिक मानहानि जैसे कानून जो अभिव्यक्ति की आजादी पर पाबंदी आयद करते हैं, गोसंरक्षण कानून जो राज्य को दूसरे की जिंदगी में दखल देने की ताकत देता है। इनकी लंबी फेहरिस्त है। कुछ और कानून ऐसे हैं जो दूसरे क्षेत्रों से ताल्लुक रखते हैं। ये कानून राज्य को हमारी स्वतंत्रताएं पाबंद करने या हमें प्रदान करने के अतिरिक्त अधिकार देते हैं गोया हमारी आजादी राज्य के अहसान तले रेहन हो।
कांग्रेस और बीजेपी के बीच कुछ और अहम फर्क हैं लेकिन यहां यह दोहराना जरूरी है कि बीजेपी को राज्य पर अपना नियंत्रण कायम रखने के लिए कोई नया कानून गढऩे की जरूरत नहीं पड़ी। यह भयावह तथ्य है कि उसका काम कांग्रेस के दौर के कानूनों से ही चल जा रहा है। वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ किए गए यूएपीए के इस्तेमाल में दरअसल यही हो रहा है।
संभव है कि कांग्रेस ने पहले जो कुछ किया, वह विभाजन की अनिवार्यता से उपजा रहा हो लेकिन जब नागरिक अधिकारों की बात आई तो कांग्रेस राज्यवादी हो गई द्ग यह एक तथ्य है। इसका आरंभ पहले संशोधन पर बहस से हुआ, जब जवाहरलाल नेहरू इतिहास के गलत पाले में खड़े पाए गए। इसीलिए कांग्रेस को यदि निरंकुशतावाद की सच्ची और प्रभावी आलोचना करनी है तो पहले उसे अपना दामन साफ करना होगा।
दूसरे, कांग्रेस और राहुल गांधी अपने संघर्ष की वजह समझ नहीं पा रहे हैं। समस्या यह नहीं है कि इन्हें हिंदू-विरोधी समझा गया। समस्या दोहरी है। इन्होंने व्यक्तिगत स्वतंत्रता की कसौटियों को सभी समुदायों के बीच बराबर नहीं बरता, बल्कि इसे समुदायों के बीच प्रतिस्पर्धा का विषय बना दिया। इसकी जड़ में हालांकि असल समस्या नागरिक स्वतंत्रता का बचाव कर पाने में उसके साहस के अभाव की है।
सामने से नेतृत्व करने का सवाल राहुल के लिए खुली चुनौती बना हुआ है। क्या पार्टी की आंतरिक कार्यप्रणाली वास्तव में सुधर गई है? पार्टी अगर साहस दिखाते हुए स्वतंत्रता के नए घोषणापत्र के समर्थन में खुलकर उतर आवे, तब जाकर उसका संकल्प दिखेगा। इस संदर्भ में पंजाब का प्रस्तावित ईशनिंदा कानून एक चिंताजनक अध्याय है। ऐसा कर के कांग्रेस न केवल स्वतंत्रताओं के हक में लड़ाई से मुंह मोड़ रही है और एक खतरनाक नजीर पेश कर रही है। अपनी हिंदू-विरोधी छवि को त्यागना एक बात है, धर्म के ठेकेदारों के आगे साष्टांग कर देना बिल्कुल और बात है। कांग्रेस के भीतर अब भी यह विभाजन रेखा उतनी स्पष्ट नहीं है। तीसरे, नरेंद्र मोदी की अगली संभावित पारी का मतलब संस्थाओं के भविष्य से जोड़कर देखा जाता है। इसकी काट तभी पैदा होगी जब विपक्ष संस्थानों को लेकर एक नया आख्यान गढऩे को तैयार हो।
कांग्रेस को कहना होगा कि ‘मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंसÓ का नारा आज जिस तरह प्रयोग में लाया जा रहा है, वह खोखला है। न्यूनतम सरकार का यदि कोई अर्थ है तो वह निजी और नागरिक स्वतंत्रताओं के संदर्भ में ही ज्यादा होगा। निजी स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति, अपना धर्म चुनने और खानपान की आजादी, विरोध करने की आजादी, बिना आरोपपत्र दायर हुए छह महीने तक हिरासत में रखे जाने के खिलाफ सुरक्षा द्ग ये सब मिलकर स्वतंत्रता का एक ऐसा व्यापक फलक बुनते हैं जिसे और मजबूत कानूनी संरक्षण की दरकार है।
कांग्रेस को यदि अपनी विश्वसनीयता कायम करनी है तो उसे अदालतों और पुलिस महकमे को भी बेहतर बनाना होगा, जिनकी प्रक्रियाओं ने अच्छे से अच्छे कानून का मजाक बना डाला है। यह सोचना गलत होगा कि एक सशक्त विधिक तंत्र और बेहतर पुलिसतंत्र केवल वर्ग विशेष से जुड़े मुद्दे हैं। इसके उलट, इनके भ्रष्ट होने की सबसे ज्यादा मार गरीब पर ही पड़ती है। नेहरू और गांधी के कहे की प्रासंगिकता पर जिरह से कहीं ज्यादा जरूरत कल के भारत को आजादी के एक नए घोषणापत्र की है। क्या कोई पार्टी इंसाफके लिए यह काम अपने हाथ में लेगी?
प्रताप भानु मेहता
राजनीतिशास्त्री