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देशहित या सिर्फ स्वार्थ?

Published: Jan 16, 2015 12:12:00 pm

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देश में सोलहवीं लोकसभा के गठन के लिए चुनावी अधिसूचना जारी होने में अब कुछ दिन ही बचे हैं…

देश में सोलहवीं लोकसभा के गठन के लिए चुनावी अधिसूचना जारी होने में अब कुछ दिन ही बचे हैं। आम चुनाव में जीत हासिल करने के लिए अभी से राजनीतिक जोड़-तोड़ की कवायद शुरू हो गई है। गठबंधन की राजनीति पूर्व में कितनी सफल रही और कितनी असफल, इसी पर आधारित है आज का स्पॉट लाइट…

पुष्पेश पन्त
राजनीतिक विश्लेषक और जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर
हम सब जाने क्यों यह मानकर चल रहे हैं कि अब हमें साझा गठबंधन सरकारों के युग में ही अपना जीवन व्यतीत करना है? वंशवादी स्वामिभक्ति हो या सजातीय अनुराग अथवा क्षेत्रीय कूपमंडूकों का “अहोरूपम् अहो ध्वनि” मार्का जमावड़ा, जो संघीय व्यवस्था के नाम पर हर मतभेद को संवैधानिक संकट का रूप देने की साजिश रचते दिखलाई देता है, धूर्ततापूर्ण गठबंधनों की उपयोगिता पर सवालिया निशान खड़े कर चुका है।

हमारे प्रधानमंत्री ने जब से “गठबंधन धर्म” की दुहाई दे अपनी सरकार की लाचारी से देश को शर्मसार किया, तभी से जागरूक नागरिक इस स्थापना को पचाने में अपने आप को असमर्थ पा रहे हैं कि अगली सरकार कोई अकेला दल नहीं वरन एक या दूसरा गठबंधन ही बना सकता है।

“भानुमति के कुनबों” के सदस्यों के भ्रष्टाचारी आचरण से त्रस्त मतदाता कई ऎसे दिग्गजों की छुट्टी करने को आतुर-व्याकुल हैं जो दलबदल कानून पारित होने के बाद भी “आया राम-गया राम” को मात करते थाली के बैंगन की तरह लुढ़कते रहते हैं। किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि इस बार कोई एक दल अपने बलबूते पर ही केन्द्र में सरकार बना ले। (उत्तर प्रदेश तथा पंजाब विधान सभा चुनावों के नतीजे उदाहरण हैं। “आप” का उदय भी तेजी से बदलते जनमत का उदाहरण है।

“आदर्श “गठबंधन की बात करना नादानी
आज यह कहना बहुत कठिन है कि सरकार अपना काम दक्षता से कर सके, इसे सुनिश्चित करने के लिए किस आधार पर गठबंधन होना चाहिए। यह तभी संभव है जब कोई वैचारिक साम्य हो या विभिन्न दलों के नेताओं की ईमानदारी निर्विवाद हो। येन- केन- प्रकारेण बहुमत जुटाने के लिए मुंहमांगी कीमत चुकाने का सौदा जब हो चुका हो, तब दक्षता और ईमानदारी का “संकल्प” कैसे पूरा हो सकता है?

ममता बनर्जी हों या करूणानिधि, साम्यवादी हों या बहुजन समाजवादी पार्टी की सर्वेसर्वा, सभी ने भयादोहन कर अपना हिस्सा वसूलने में असाधारण महारत दिखलाई है। हमारी समझ में चुनाव के पहले बने पारदर्शी गठबंधन नतीजे आने के बाद वाली खरीद-फरोख्त या जोड़-तोड़ की अपेक्षा अधिक वांछनीय समझे जाने चाहिए।

जिस तरह का खंडित जनादेश बार-बार सामने आ रहा है, उसके मद्देनजर किसी “आदर्श” गठबंधन की बात करना नादानी ही लगता है। धुर्वीकरण, निर्णायक टकराव और कुछ काल के लिए अस्थिरता जनतंत्र के लिए घातक नहीं समझी जानी चाहिए। समुद्रमंथन वाले रूपक का इस्तेमाल करें तो विष के बाद अमृत निकलने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।

चुनावी घोषणापत्र रस्म अदायगी भर
राजनैतिक दलों द्वारा जो घोषणापत्र चुनाव के वक्त जारी किए जाते हैं, वह अपनी विश्वसनीयता कब की खो चुके हैं। घोषणापत्र महज रस्म अदायगी भर रह गए हैं। इसमें बखान किए गए सिद्धांतों की तुलना करने में आम मतदाता की कोई दिलचस्पी नहीं रहती। बहुत हुआ तो दो- चार दिन यह चर्चा गरम रहती है कि कौन मुफ्त में या मिट्टी के मोल क्या देने का वादा कर रहा है? कितने दिनों में आसमान से तारे तोड़ लाने वाला है? हालात इतने खराब हो चुके हैं कि सुप्रीम कोर्ट को यह कहना पड़ा है कि ऎसे लोक- लुभावन वादे नहीं किए जाने चाहिए। जाहिर है कि चुनाव सुधार कानून लागू किए बिना इस हरकत को गैर कानूनी बनाना असंभव ही रहेगा। बिना गठबंधन के दबाव के या न्यूनतम साझा कार्यक्रम का बहाना बनाए भी घोषणापत्र सत्ता हासिल करने के बाद बहुत जल्दी रद्दी कागज में बदल जाते हैं।

आज की तुलना अतीत से नहीं
आज जो देखने को मिल रहा है, उसकी कोई तुलना अतीत के किसी अनुभव से नहीं की जा सकती। इंदिरा गांधी के कार्यकाल में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी उनकी कांग्रेस के साथ रही थी तो इसका आधार (कम से कम दिखावटी) साम्य था। आपातकाल के बाद जनता पार्टी की जो बेमेल खिचड़ी पकी, वह भी तानाशाही के विरूद्ध संयुक्त मोर्चा बनाने की जनतांत्रिक चेष्टा थी। विडम्बना यह है कि उस समय भगवा “सांप्रदायिक तत्व” और अतिवादी उग्र वामपंथी एक साथ हो सके थे। चुनावी मैदान में एकजुट उतरने के पहले यह गठबंधन हो चुका था।

इसकी फूट ने ही इंदिरा गांधी के सत्ता में लौटने का रास्ता साफ किया था। इस समय चौतरफा घिरी कमजोर कांग्रेस हो या नाम लेने भर को बची माकपा, इनकी मजबूरी अपना अस्तित्व बचाए रखने की है। किसी का कंधा या लड़खड़ाते कदम संभालने को उधार की बैसाखी ही माना जाना चाहिए। यह सिर्फ खुदगर्ज मौका-परस्ती है, दूरदर्शी रणनीति नहीं।

सत्ता ही बन गया उद्देश्य
डॉ. सतीश मिश्रा, वरिष्ठ पत्रकार
हमेशा ही यह सवाल किया जाता है कि क्या भारत में गठबंधन की राजनीति जरूरी “बुराई” बनती जा रही है। यह बुराई नहीं है बल्कि भारत जैसे बड़े देश में जहां सांस्कृतिक विविधता हो, विभिन्न धर्मों को मानने वाले लोग हों, उनके विश्वास और आदर्श अलग हों वहां इसके व्यवहार में आना नई बात नहीं है। भारत के लोग कई भाषाएं बोलते हैं, उनकी विभिन्न संस्कृतियां हैं, ऎसे में विविधता आना स्वाभाविक है।

भारत में न केवल विभिन्न धर्मो के मानने वाले लोग हैं, बल्कि उनके पंथ भी अलग हैं। पूरे भारत का भ्रमण कर आइए, आपको हजारों मठ, आश््रम मिल जाएंगे जहां हजारों लोगों की भीड़ नतमस्तक रहती है। जब देश में एक ही पार्टी का शासन था और कोई गठबंधन नहीं था, तब कांग्रेस खुद ही एक गठबंधन थी। इसमें विभिन्न आदर्शो, विश्वासों को मानने वाले और सभी क्षेत्र के लोग शामिल थे।

आजादी के बीस वर्ष बाद यानी 1967 में गठबंधन सरकारों का दौर शुरू होता है। लगभग नौ राज्यों में गठबंधन सरकारें बनीं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, ओडिशा, पश्चिम बंगाल आदि ऎसे प्रमुख राज्य थे, जहां संविद सरकारें बनीं। 1977 में केन्द्र में पहली बार गठबंधन सरकार सत्ता में आई। 1975 में लगाए गए आपातकाल के कारण आम चुनाव में कांग्रेस को बुरी तरह पराजय का मुंह देखना पड़ा था। 1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की निर्मम हत्या के बाद यह प्रबल सम्भावना बनने लगी थी कि देश में एक बार फिर गठबंधन सरकार बनेगी लेकिन 1985 में हुए चुनावों में कांग्रेस को इंदिरा गांधी की मौत से उत्पन्न सहानुभूति का लाभ मिला और कांग्रेस दलीय सरकार के रूप में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी।

इसके बाद से ही कोई भी एक दल केन्द्र में सरकार बनाने में सफल नहीं हो पाया। 1991 के आम चुनाव में कांग्रेस सरकार बनाने लायक सीटें नहीं जीत पाई थी? उसे कम सीटें ही मिली, इसके बावजूद उसने पांच वर्ष का अपना कार्यकाल पूरा किया। गठबंधन की यह राजनीति कमोवेश द्विधु्रवीय यानी कांग्रेस और भाजपा के दो धु्रवों के बीच ही केन्द्रित रही। और जो अन्य छोटे क्षेत्रीय दल थे, उन्होंने अपना पाला बदलते हुए गठबंधन में सहभागिता निभाई। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि यह आवश्यक बुराई है बल्कि देश की जमीनी हकीकत के अनुसार यह विकास मूलक है।

गठबंधन सरकार की
व्यावहारिक कठिनाइयां
हालांकि गठबंधन की राजनीति अभी पूरी तरह विकसित नहीं हुई है। व्यक्तिगत हितों की खातिर छोटे दल आकार लेते हैं। इन दलों के नेताओं को आदर्शो और प्रतिबद्धताओं की कोई चिन्ता नहीं होती है। वे सिर्फ सत्ता के लिए ही लालायित रहते हैं। चुनाव के बाद होने वाले गठबंधन कमजोर अवधारणाओं पर आधारित होते हैं।

गठबंधन सरकारें बेहतर और लम्बे समय तक काम कर सकती हैं यदि चुनाव पूर्व वे सामान्य उद्देश्यों और सामान्य कार्यक्रम को लेकर तालमेल बैठा लें। चुनाव पूर्व बने ऎसे गठबंधनों को स्पष्ट कार्ययोजना और आर्थिक-सामाजिक एजेण्डे पर सहमत होकर चुनाव लड़ना चाहिए। दुर्भाग्य से ऎसा नहीं होता और राजनीतिक समस्याएं उत्पन्न होती हैं। हर दल के लिए यह आवश्यक होना चाहिए कि उसे तभी मान्यता मिले जब उसे न्यूनतम वोट (कम से कम पांच प्रतिशत) मिले हों।

जब किसी गठबंधन के पीछे दलों की अवसरवादिता हो और जिसका एकमात्र उद्देश्य सत्ता पाना हो, वह गठबंधन बहुत दूर तक नहीं जा पाता है। जब देशहित में राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिक्रियाएं विकसित नहीं हो पाती हैं, तो बाहरी शक्तियों और आतंकवाद को बढ़ावा मिलता है।

ऎसा तब होता है, जब राजनीतिक दल राष्ट्रहित के विपरीत संघीय सिद्धांतों का हवाला देते हैं। देश की विदेश नीति तब तक सही ढंग से संचालित नहीं हो सकती जब तक राज्य अथवा क्षेत्रीय पार्टियां चुनावी हित को देखते हुए इसमें दखल देते रहेंगे? तृणमूल कांग्रेस, एआईडीएमके, अकाली दल, शिवसेना, डीएमके और कई तमिल पार्टियां इसका ताजा उदाहरण हैं।

नहीं निभा पाते गठजोड़
सन 1989 के लोकसभा चुनावों के बाद से बनी गठबंधन सरकारों में कुछ सफल तो, कुछ असफल रही हैं। 1991, 1999 और 2004 और 2009 में बनी गठबंधन सरकारों ने अपना कार्यकाल पूरा किया, जबकि 1989, 1996 और 1998 की सरकारें असफल रहीं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि मौजूदा परिस्थितियों के हिसाब से किसी एक दल की सरकार बनना मुश्किल हो गया है। 1984 के बाद किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत हासिल नहीं हो सका है। वर्ष 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चे ने भारतीय जनता पार्टी और वामपंथी दलों के बाहरी समर्थन से गठबंधन सरकार बनाई थी।

बाद में मंडल कमीशन को लेकर मतभेद और 10 महीने बाद ही 1990 में सरकार गिर गई। इसके बाद 1996 में एक बार फिर एच.डी. देवेगौड़ा के नेतृत्व में यूनाइटेड फ्रंट की सरकार बनी। यह सरकार भी सिर्फ एक साल ही चल पाई। वष्ाü 1997 में इंद्रकुमार गुजराल प्रधानमंत्री बने। उन्होंने भी यूनाइटेड फ्रंट की सरकार का नेतृत्व किया। यह सरकार भी एक साल ही चल पाई।

1998 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी, लेकिन 13 महीने बाद सरकार गिर गई। चुनाव बाद फिर एनडीए ने सरकार बनाई और लगभग पांच साल का कार्यकाल पूरा किया। 2004 में यूपीए सरकार बनी। पांच साल के कार्यकाल के बाद 2009 में यूपीए फिर लौटी, लेकिन अब तक कई सहयोगियों ने साथ छोड़ दिया।

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