देश भर के किसानों-मजदूरों ने अपनी विभिन्न मांगों को लेकर बुधवार को नई दिल्ली में धरना-प्रदर्शन किया। उसके एक दिन के बाद ही एससी-एसटी एक्ट में संशोधन के खिलाफ भारत बंद का राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश व बिहार सहित कई राज्यों में असर दिखा। दोनों विरोधों में दो अलग-अलग सामाजिक-आर्थिक आधार वाले समूह शामिल थे। किसान-मजदूर संगठनों में ज्यादातर लोग कमजोर आर्थिक सामाजिक आधार वाले हैं तो एससी-एसटी एक्ट का विरोध करने वाला समूह वर्चस्व रखने वाला। किसान-मजदूरों की नाराजगी तो लगातार ही बनी हुई है। तमिलनाडु के किसानों ने तो सरकार का ध्यान खींचने के लिए जंतर-मंतर पर करीब 40 दिनों तक तरह-तरह की वेश-भूषा में अलग-अलग तरीके अपनाए, फिर भी सुनवाई नहीं हुई। एक साथ कई समूहों की नाराजगी सरकार के लिए चिंता का विषय होना चाहिए पर ऐसा लगता है कि विरोधों को नकारना या उनकी अनदेखी करना सरकार की विशेष रणनीति का हिस्सा बन गया है। यह लोकतंत्र की मजबूती के लिए ठीक नहीं है।
लोकतांत्रिक विरोधों को दरकिनार करने की रणनीति सिर्फ राजग सरकार ने ही अपनाई हो, ऐसा नहीं है। संप्रग सरकार के समय भी ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं। गंगा की सफाई के लिए 2011 में करीब 68 दिनों तक अनशन करने वाले उत्तराखंड के स्वामी निगमानंद का निधन हो या 2015 में शराबबंदी के लिए अनशन करने वाले राजस्थान के गांधीवादी गुरुशरण छाबड़ा की मौत, सरकारों की असंवेदनशीलता और लापरवाही की झलक भर हैं। गंगा की सफाई के लिए ही उत्तराखंड में ही अनशन कर रहे प्रो. जीडी अग्रवाल हो या गुजरात में अनशन पर बैठे हार्दिक पटेल, सरकार का वर्तमान रवैया निहायत ही उपेक्षापूर्ण है। सरकार की नजर में मांगें जायज हो या नाजायज, उन्हें संबोधित तो किया ही जाना चाहिए। सरकारों को असहज करने वाले मुद्दों से आंख चुराना, संवाद न करना या ऐसे मुद्दे उठाने वालों की निष्ठा को ही संदिग्ध बता देना, दरअसल जनतंत्र का मजाक बना देना है। सरकारों को इससे बाज आना चाहिए।