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सदन में असहिष्णुता की घुसपैठ

Published: Apr 23, 2018 10:55:41 am

क्या लोकतंत्र खतरे में है? सवाल जटिल जरूर है लेकिन केंद्र की मोदी सरकार के रवैये को देखकर तो यही लगता है।

Jyotiraditya Scindia

Jyotiraditya Scindia

ज्योतिरादित्य सिंधिया

क्या लोकतंत्र खतरे में है? सवाल जटिल जरूर है लेकिन केंद्र की मोदी सरकार के रवैये को देखकर तो यही लगता है। देश इस समय ऐसे दौर से गुजर रहा है जिसमें चारों तरफ कोई सुनवाई नहीं हो रही है। ऐसा लगता है कि सरकार ने आंख-कान-मुंह बंद किए हुए हैं। इन सबके बीच है संसद में विपक्ष की सुनवाई न होना, कैश का संकट, तेल के दामों का आसमान छूना, निरंकुश महंगाई और कानून व्यवस्था के बिगड़ते हालात। इन सबके बाद भी प्रधानमंत्री देश में कुछ बोलने के बजाय विदेश में जाकर अपनी पीठ थपथपाने में लगे हुए हैं। देश में इस तरह का माहौल पहले कभी नहीं देखा गया।

हमारे राष्ट्र-निर्माताओं ने भारतीय लोकतंत्र को इस तरह संजोया था, ताकि हर व्यक्ति अपनी बात, अपने विचार खुलकर सामने रख सके। मतभेद, असहमति और वाद-विवाद ही तो जीवंत प्रजातंत्र का प्रतीक माने जाते हैं। संसद में 545 प्रतिनिधियों के बीच मतभेद, विवाद निश्चित है, लेकिन इसका यह मतलब हरगिज नहीं कि इनका हल असंभव है। बजट सत्र में कुछ राजनीतिक दलों के सदस्य सदन पटल में विरोध-प्रदर्शन और नारेबाजी करते रहे, अपनी जायज मांगों के लिए आवाज उठाते रहे, चाहे आंध्र प्रदेश के लिए विशेष दर्जे की मांग हो या तमिलनाडु के लिए कावेरी प्रबंधन बोर्ड की मांग, लेकिन बातचीत कर समस्याओं का निराकरण तो दूर, भाजपा सरकार ने तो नाकामियों पर पर्दा डालने के लिए गतिरोध का बखूबी दुरुपयोग किया। सहभागी दलों से भी चर्चा करना मुनासिब नहीं समझा। कांग्रेस यह मांग रखती आई है कि 13000 करोड़ रुपए के नीरव मोदी घोटाले, सीबीएसई पेपर लीक एवं सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा जरूरी है, लेकिन इन संजीदा मुद्दों पर जवाब देने से भाजपा लगातार बचती रही। उल्टा कांग्रेस पर गतिरोध के लिए उंगलियां उठाती रही। यह भी विफलताओं से लोगों का ध्यान भटकाने की भाजपा की तरकीब ही है।

इतना ही नहीं, सरकार ने सबसे महत्वपूर्ण नीति दस्तावेज, वित्तीय बिल पर भी चर्चा उचित नहीं समझी। यह सचमुच खेदजनक है कि सरकार ने बजट सत्र के दौरान गतिरोध दूर करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया। सब भलीभांति जानते और मानते हैं कि संसद की कार्यवाही सुनिश्चित करना सत्तापक्ष का उत्तरदायित्व है, लेकिन भाजपा के संसदीय कार्यमंत्री ने एक बार भी किसी दल से बातचीत करने की पहल नहीं की, न संसद के अंदर, न बाहर। कोई विचार-विमर्श नहीं, कोई ऑल-पार्टी मीटिंग नहीं, किसी प्रकार का संपर्क न सहभागियों से किया, न विपक्षी नेताओं से।

लगता है असहिष्णुता के प्रति भाजपा का लगाव अब संसद के दोनों सदनों तक घुसपैठ कर चुका है जो कि बेहद चिंताजनक है। पहले भी, भाजपा अपनी विचारधारा के खिलाफ असहमति को कुचलने के लिए विशिष्ट स्वतंत्र संस्थाओं पर अंकुश लगा चुकी है, चाहे केंद्रीय बैंक हो या शैक्षिक संस्थाएं। आरोप-प्रत्यारोप की तू-तू-मैं-मैं तो चलती रहेगी, सवाल यह है कि इस समस्या का समाधान क्या है? अगर सरकार अपने अहंकार से कुछ क्षण के लिए मुक्त हो तो अन्य संसदीय लोकतंत्रों से हम अहम सीख ले सकते हैं।

ब्रिटेन और कनाडा में हर संसद सत्र में 20-22 दिन केवल विपक्षी दलों को अपनी इच्छानुसार मुद्दों पर चर्चा के लिए दिए जाते हैं। इससे दो लक्ष्यों की पूर्ति होती है – पहला यह कि विपक्ष उन तमाम मुद्दों पर सरकार को कठघरे में खड़ा कर सकता है, जिनका सामना सरकार नहीं करना चाहती, दूसरा यह कि अन्य छोटे राजनीतिक दलों को भी नीति-निर्धारण के लिए अपनी बात रखने का अहम अवसर मिल जाता है।

एक और विकल्प यह हो सकता है कि ‘रिकार्डेड वोटिंगÓ (या ‘डिवीजनÓ), जो वर्तमान में सिर्फ संविधान में संशोधन के दौरान प्रयोग की जाती है, उसका अन्य विधेयकों और निर्णयों में भी उपयोग किया जाए। यह जनता के प्रति सांसदों की जवाबदेही के साथ सरकार का सभी पार्टियों के सदस्यों के साथ विचार करके उनकी सहमति के साथ ही आगे बढऩा भी सुनिश्चित करेगा। जैसा कि हमने जीएसटी बिल के दौरान देखा, यह कदम बहुत से नियम और विधेयकों को व्यापक बहस, चर्चा और आम सहमति-निर्माण के दायरे में ला सकेगा।

आज जन-जन में देश के नेताओं के खिलाफ क्रोध है। राजनीतिक दलों पर से उनका भरोसा उठ चुका है। देश की संसदीय व्यवस्था को लेकर मायूसी और निराशा व्याप्त है। यह गंभीर खतरे का संकेत है। ऐसे में सवाल उठता है – कब तक हम अपने आपको जीवंत संसदीय लोकतंत्र होने की झूठी तसल्ली देते रहेंगे? यदि हम सचमुच लोकतंत्र को बचाना चाहते हैं तो संसदीय प्रक्रिया में जनता का विश्वास बहाल करना हम सभी का दायित्व है। एक सांसद और आम भारतीय नागरिक होने के नाते, मेरा सरकार से विनम्रपूर्वक अनुरोध है कि संसद को बंधक बनाकर राजनीति करना बंद करें। प्रधानमंत्री का फर्ज बनता है कि जिस संस्था को ‘लोकतंत्र का मंदिरÓ कहा था, आज उसी मंदिर की गरिमा, भविष्य और प्रासंगिकता की हिफाजत करने के लिए प्रभावी पहल करें।

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