माननीय जस्टिस खेहर,
भारत के मुख्य न्यायाधीश आपकी टिप्पणी ‘आखिरकार हम ठहरे तो भारतीय ही। कानून और कोर्ट के आदेशों का उल्लंघन हमारे खून और संस्कृति में है।’ ‘आज यह एक चलन बनता जा रहा है कि मैं कानून का पालन नहीं करूंगा। मैं कोर्ट के निर्देशों को नहीं मानूंगा। जो भी हो, इसमें मुझे कोई फर्क नहीं पडऩे वाला है।’ संवेदना भी प्रकट कर रही है और न्यायालयों की कार्यप्रणाली का प्रभाव भी दिखा रही है। मान्यवर! हमारे देश की संस्कृति सदा संस्कारवान ही रही है। आज की शिक्षा, सत्ता का अहंकार, क्षुद्र स्वार्थ और न्यायपालिका का नरम रवैया ही अवमानना की मानसिकता को खून में प्रवाहित करने के कारण हैं। यह तो सही है कि सुविधाओं के लिए न्यायपालिका सरकारों की ओर से देखती है, किन्तु इतनी बड़ी कीमत चुकाकर संविधान तथा न्यायपालिका की हैसियत को समय-समय पर आहत भी किया है।
भारत के मुख्य न्यायाधीश आपकी टिप्पणी ‘आखिरकार हम ठहरे तो भारतीय ही। कानून और कोर्ट के आदेशों का उल्लंघन हमारे खून और संस्कृति में है।’ ‘आज यह एक चलन बनता जा रहा है कि मैं कानून का पालन नहीं करूंगा। मैं कोर्ट के निर्देशों को नहीं मानूंगा। जो भी हो, इसमें मुझे कोई फर्क नहीं पडऩे वाला है।’ संवेदना भी प्रकट कर रही है और न्यायालयों की कार्यप्रणाली का प्रभाव भी दिखा रही है। मान्यवर! हमारे देश की संस्कृति सदा संस्कारवान ही रही है। आज की शिक्षा, सत्ता का अहंकार, क्षुद्र स्वार्थ और न्यायपालिका का नरम रवैया ही अवमानना की मानसिकता को खून में प्रवाहित करने के कारण हैं। यह तो सही है कि सुविधाओं के लिए न्यायपालिका सरकारों की ओर से देखती है, किन्तु इतनी बड़ी कीमत चुकाकर संविधान तथा न्यायपालिका की हैसियत को समय-समय पर आहत भी किया है।
सत्ताधीशों, प्रभावशाली अधिकारियों तथा सरकारों की अमर्यादित कार्यशैली पर मौन रहना, स्वप्रसंज्ञान न लेना और बड़े लोगों को सजा के स्थान पर लम्बी अवधि की सुविधा देने के लिए क्या न्यायालय दोषी नहीं हैं? हमारे सामने दर्जनों बड़े-बड़े उदाहरण हैं जहां राज्य सरकारों ने न सर्वोच्च न्यायालय के कई फैसले ही लागू करवाए, न ही राज्य के उच्च न्यायालयों के। आज तक किसी भी मंत्री या अधिकारी को जेल नहीं जाना पड़ा। फिर कैसी अवमानना? जब न्यायाधीशों को अवमानना ही नहीं लगे, अवमानना करने वालों के हौसले बुलन्द क्यों नहीं होंगे!
मान्यवर! इससे भी गंभीर प्रश्न यह है कि अवमानना घोषित होने पर सजा न देना एक पहलू है, दूसरा मुख्य पहलू यह है कि इस स्थिति के चलते सारा जनहित अनदेखा होता जा रहा है। जनहित के कई बड़े-बड़े फैसले अनेक कारणों से लागू ही नहीं हो पाते। इसके लिए अलग से विभाग भी होना चाहिए, जो फैसलों की क्रियान्विति पर नजर रख सके।
राजस्थान उच्च न्यायालय में ही हर माह सरकार के बड़े अधिकारियों को अवमानना मामलों में तलब किया जाता है। प्रश्न है कि परिणाम क्या निकले! जयपुर के निकट रामगढ़ बांध, जिसकी भराव क्षमता साठ फुट से अधिक है, वर्षों से सूखा पड़ा है। अनेक बार हाईकोर्ट की टिप्पणियां भी जारी हुईं कि प्रवाह क्षेत्र मे कॉलोनियां न बसने दी जाएं, अतिक्रमण न किए जाएं, निम्स विश्वविद्यालय के निर्माण प्रवाह क्षेत्र से हटा दिए जाएं। आज भी न कोई कार्रवाई, न अवमानना में कोई सजा! प्रदेश में तो यह भी हुआ, जिन १९ वरिष्ठ अधिकारियों पर मामले चल रहे थे उन्हें भी राज्य सरकार ने वापस ले लिया।
विभिन्न शहरों के मास्टर प्लान बदलते रहने के मामले की सुनवाई के दौरान माननीय न्यायाधीशों ने अधिकारियों को फटकार लगाते हुए जारी निर्देशों की पालना करने के आदेश दिए। क्या फटकार लगाना, ऐसे जनहित के महत्वपूर्ण मुद्दों में, पर्याप्त है? अफसर तो बदलते ही रहते हैं। अगली सुनवाई पर दूसरा आ जाएगा। तब किसको चिन्ता पड़ी अवमानना की। यह चिन्ता तो न्यायपालिका को ही करनी पड़ेगी। पूरे देश पर अंगुली उठाना तो उचित नहीं कहा जा सकता।
एक और परम्परा भी देखने को मिल रही है। प्रदेश के उच्च न्यायालय यदि जनहित में कोई महत्वपूर्ण फैसला राज्य सरकार के खिलाफ देता है, तो राज्य सरकारें इस तरह के फैसले के विरुद्ध सर्वोच्य न्यायालय पहुंच जाती हैं। फैसला लागू ही नहीं हो पाता। तब सरकारें क्यों डरने लगीं अवमानना से। होना तो यह चाहिए कि राज्य सरकारों को बाध्य किया जाए कि पहले फैसला लागू करें, फिर अपील करें।
जबलपुर हाईकोर्ट का निर्णय कि प्रमोशन के दौरान आरक्षण लागू न हो, अभी तक उच्चतम न्यायालय में अटका पड़ा है। क्या इससे उच्च न्यायालय की मानसिकता को चोट नहीं पहुंचेगी? इसी प्रकार दूध के दाम और नियंत्रण के अधिकार का २०१५ का फैसला उच्चतम न्यायालय में निलंबित है। वहां अधिकांश मामले निपटने तक सरकारें ही बदल जाती हैं।
शहरों की सफाई, यातायात, कारों के शीशों पर काली फिल्में लगाना, ध्वनि प्रदूषण, रात्रि में पटाखे चलाने जैसे कार्यों की सूची तो लम्बी है। क्या राज्यों में भी कानून विभाग में ऐसे अधिकारी नहीं होने चाहिएं जो कानून एवं फैसलों की पालना के लिए जिम्मेदार हों? सबसे जरूरी तो यह है कि अवमानना को एक सीमा के बाद नजरअंदाज ही न किया जाए। भ्रष्टाचार ही बढ़ेगा। जो लोग न्यायालय की अवमानना या कानून का उल्लंघन करते हैं उनके मन में डर पैदा होना आवश्यक है। उनमें यह डर पैदा हो, इसकी जिम्मेदारी भी न्यायपालिका की ही है।
आज सारा देश न्यायपालिका की ओर आशा की किरण तलाश रहा है, कार्यपालिका और विधायिका विश्वास खोती जा रही है, ऐसे में माई लॉर्ड, आपकी टिप्पणी देश को निराशा की ओर ले जाएगी। अब भी समय है, आप न्यायपालिका के लिए प्रकाश स्तम्भ की भूमिका निभा सकते हैं ताकि देशवासियों का न्याय के प्रति विश्वास और अधिक सुदृढ़ हो सके।