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मौत की खेती

locationजयपुरPublished: Jun 08, 2019 08:41:02 am

Submitted by:

Gulab Kothari

इस देश में कोई सच्चा कर्मयोगी शेष है तो वह एकमात्र किसान है। सूर्य ही जिसका मुखौटा है। जितना सूर्य तपता है, मानव देह में उतना ही किसान भी तपता है

Farmer

Farmer

गुलाब कोठारी

इस देश में कोई सच्चा कर्मयोगी शेष है तो वह एकमात्र किसान है। सूर्य ही जिसका मुखौटा है। जितना सूर्य तपता है, मानव देह में उतना ही किसान भी तपता है। उषा के साथ काम पर चलता है, संध्या को घर लौटता है। पूरे दिन सूर्य के साथ जीता है। विष्णु अन्न है और किसान अन्न का जनक है। विष्णु की तरह ही हमारा पोषक है। पढ़े-लिखे लोग उसे छोटा समझते हैं, अनपढ़ मानते हैं, जबकि वह प्रकृति से निकट और एक तारतम्य के साथ जीता है। शिक्षित व्यक्ति तो प्रकृति की बातें ही करता है, समझता कुछ नहीं। वह तो न अन्न को समझता है, न ही शरीर को। तब उसकी बनाई नीतियां कितनी काम आ सकती हैं-किसान के, खेती के, धरती के और जल के। अधिकारियों के लिए कृषि विकास का क्षेत्र ही नहीं है। उद्योग, सडक़ें, ग्लैमर ही विकास है। आज जो कुछ दिखाई पड़ रहा है, सब उजाड़ ही है। हमारी कृषि नीति में हमारा ज्ञान ‘शून्य’ रहता है।

हमारा भूगोल सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाग है कृषि का। क्या पैदा हो, क्यों और कितना हो, क्षेत्र के जल का स्तर और गुणवत्ता, पशु-पक्षियों की स्थिति आदि का ध्यान रखकर ऋतुओं के अनुरूप खेती होती रही है। आज सारी मर्यादाएं टूट चुकी अथवा सरकार के लक्ष्यों ने तोड़ डाली। आज किसी भी भू-भाग पर कुछ भी बोया जा सकता है, ऐसा वातावरण बना दिया गया है। उन्नत बीज, खाद, कीटनाशक और नहरी सिंचाई आदि विकास के पर्याय हो गए। सात्विक अन्न में विकास का विष घुल गया। कहावत कितनी बदल पाएगी-‘जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन’-समय ही बताएगा।

ईश्वर ने हमें रेगिस्तान का वरदान दिया। हमने इसे अभिशाप घोषित कर दिया। देश के श्रेष्ठतम पशुधन का निर्माण यहीं हो सकता है। भारत में तो इतना बड़ा क्षेत्र अन्यत्र है ही नहीं। आज भी विश्व के श्रेष्ठ घोड़े अरब और मालाण से ही प्राप्त कर रहे हैं। सेवण घास भी अन्यत्र नहीं होती।

रेगिस्तान खेती करने का क्षेत्र नहीं, सिवाय इजरायल की जैसी लाचारी की तरह। हमने तो नहरों और सडक़ों का जाल बिछाकर रेगिस्तान की हत्या करने की ही ठान ली। यूरोप के अनेक देश स्वीडन, नार्वे, स्विट्जरलैंड आदि तो मात्र पशुधन पर आधारित उद्योगों के कारण आर्थिक स्तर के सिरमौर बने हुए हैं। हम सोने को कोयले में बदलना चाह रहे हैं। धन्य हैं हमारे नीति निर्माता!

हम खेती को यादववंशियों की तरह अपने सर्वनाश का माध्यम बना रहे हैं। नहरी खेती, बांधों का नहरों से जल वितरण तथा प्रभावशाली लोगों का ऐसी भूमि (सिंचित) पर कब्जा सर्वत्र देखा जा सकता है। नहरी खेती की शुरुआत पंजाब से हुई। आज खेती पर विकास सैकड़ों गुना हावी है। पंजाब से जिस गति से कैंसर मरीज आ रहे हैं, उससे कई गुना हमारे यहां आने वाले हैं। सरकार सब्सिडी दिए जा रही है। खाद और कीटनाशक पेट में पहुंच रहे हैं। हम अन्न को ब्रह्म कहते हैं।

दूसरी ओर बांधों के निर्माण ने लोगों को, गांवों सहित स्थायी रूप से विस्थापित कर दिया। उन लोगों के साथ अधिकारी कैसा नारकीय व्यवहार कर रहे हैं, संवेदनहीनता की पराकाष्टा है। बांध के फाटक आपात स्थिति में ही ताबड़-तोड़ खोले जाते हैं। वरना आगे से सम्पूर्ण नदी मार्ग के गांव-पशु-खेती आदि तक उजड़ गए। हर बांध का पानी कहीं ओर ले जाया जा रहा है। स्थानीय क्षेत्र पूरी तरह उजड़ चुके हैं। कुएं सूख गए हैं। विकास के नाम पर कोढ़ में खाज का काम कर रहा है जूलीफ्लोरा-विदेशी बबूल। कितना जल प्रदेशभर में सोखता है प्रतिवर्ष। इसको आप अफसरशाही का प्रतिनिधि पेड़ कह सकते हो। सारा वन विभाग गौरवान्वित है इस देवता से।

खेती में भूगोल की भूमिका ही लुप्त हो गई। बाजरा-मक्का-ज्वार का स्थान गेहूं और चावल जैसे विषैले खाद्यान्न ने ले लिया है। गेहंू के नित नए उन्नत बीज, संकर फसलें और कीटनाशक तो इसे प्रतिबंधित अनाज की श्रेणी में लाने योग्य मानेंगे। मारी संस्कृति-खान-पान, वेश-भूषा, त्योहार, देवी-देवता आदि का लोक आधार तो भूगोल ही है। व्यावसायिक उत्पाद नहीं है (कॉमर्शियल क्राप्स)। आज तो किसान भी अंधा होता जा रहा है आधुनिक तकनीक की होड़ में। कर्जदार हो रहा है, घर बिक रहे हैं, बच्चे खेती से भाग रहे हैं, आत्म हत्याओं का दौर चल पड़ा है। विष्णु फिर से क्षीर सागर में सो जाने को व्याकुल हैं। विकास की नीतियां जानलेवा साबित हो रही हैं। खेतों में डालने लायक पानी तक उपलब्ध नहीं है।

उसी गंदे जल को पीने की मजबूरी किसी सरकार को आज तक तो समझ में आई नहीं। समझने की तैयारी भी दिखाई नहीं देती। यही हाल पशुधन का है। संकर बनाना पहली आवश्यकता है विकास की। चारा विषैला हो गया। दूध मिलावटी, नकली, इंजेक्शन से बढ़ाकर, पशुओं को ए.सी. की हवा में रखकर हमारे गर्म प्रदेश में यूरोप का वातावरण और वहीं का दूध उपलब्ध कराने की स्पर्धा चल रही है। क्या किसी भले मानस अधिकारी को पता है कि कई क्षेत्रों में माताओं के दूध में भी कीटनाशकों के अवशेष आने लगे हैं? क्या उनको यह जानकारी भी है कि कुछ देशों ने डेयरी और दूध के उत्पादों के उपयोगों पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। आज की खेती और डेयरी मौत का ताण्डव ही रह गया है।

अब जबकि कृषि नीति पर नए सिरे से चिन्तन होने जा रहा है, तब क्या हम यह उम्मीद कर सकते हैं कि विज्ञान के नाम पर जमे हुए मौत के सौदागर विदा होंगे। जहर के स्थान पर अमृत की ओर लौटेंगे! हमारा परम्परागत ज्ञान पुनर्जीवित होगा। किसान के ज्ञान का पुन: सम्मान स्थापित होगा। नई पीढ़ी का भविष्य कैंसर मुक्त नजर आने लगेगा।

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