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किसान के हिस्से कड़वे लड्डू

Published: Sep 20, 2018 10:38:29 am

बच्चा अभी हुआ नहीं लेकिन लड्डू तीन बार खा लिए। किसानों को फसल का सही भाव देने के बारे में मोदी सरकार ने यही किया है। अभी तक एक भी किसान को बढ़ा हुआ भाव मिला नहीं।

Farmers

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बच्चा अभी हुआ नहीं लेकिन लड्डू तीन बार खा लिए। किसानों को फसल का सही भाव देने के बारे में मोदी सरकार ने यही किया है। अभी तक एक भी किसान को बढ़ा हुआ भाव मिला नहीं। लगता नहीं कि ज्यादातर किसानों को मिलेगा, पर तालियां तीन बार पिट गईं, बधाई के पोस्टर-होर्डिंग लग गए, लड्डू खा लिए। पहली बार लड्डू 1 फरवरी को खाए जब अरुण जेटली ने सरकार के इस ‘ऐतिहासिक’ फैसले की घोषणा की। लड्डू की मिठास में यह कड़वा सच छुप गया कि वित्त मंत्री ने लागत की परिभाषा ही बदल दी थी और अपने मूल वायदे से मुकर गए थे। दूसरी बार लड्डू 4 जुलाई को खाए जब सरकार ने इस साल खरीफ की फसल के भाव में ‘ऐतिहासिक’ बढ़ोतरी की घोषणा की। फिर लड्डू के बोझ में यह सच दब गया कि इससे ज्यादा चुनावी रेवड़ी तो पिछली सरकार 2009 में बांट चुकी थी। तीसरी बार लड्डू पिछले हफ्ते बांटे गए, जब कैबिनेट ने सरकारी खरीद की वार्षिक नीति की घोषणा की। फिर इसे एक नई ऐतिहासिक घोषणा की तरह पेश किया गया। फिर बेचारे मंत्रियों ने मोदी जी को बधाई दी। किसान फिर टकटकी लगाए देखता रहा कि कब उसे मेहनत का फल मिलेगा।

दरअसल सरकारी खरीद की नई व्यवस्था का वायदा वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 1 फरवरी को बजट भाषण में ही किया था। तभी उन्होंने नीति आयोग की जिम्मेदारी लगाई थी कि वह जल्द से जल्द ऐसी व्यवस्था सुझाए, जिससे किसानों को सचमुच न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ मिल सके। लेकिन जो काम सात हफ्ते में हो सकता था, उसमें सरकार ने सात महीने लगा दिए। कायदे से इसके लिए सरकार को माफी मांगनी चाहिए थी। देरी और मशक्कत के बाद जो नीति आई उसमें बस एक नई बात हुई। वह यह कि पहली बार सरकार ने माना द्ग एमएसपी की घोषणा भर से किसान को कुछ नहीं मिलेगा और यह कि दाम भले ही 24 फसलों के घोषित किए जाते रहे हों, पर खरीद सिर्फ दो-तीन फसलों की होती थी। लेकिन सिर्फ गलती मानने से किसान का पेट नहीं भरेगा।

समस्या का नई नीति में भी तोड़ नहीं है, जिसे नाम दिया गया है ‘प्रधानमंत्री आशा]। लेकिन गौर से देखें तो इस ‘आशा’ में केवल निराशा ही हाथ लगेगी। सात महीने बाद सरकार ने तय किया कि इस साल भी सरकारी खरीद के पुराने तरीके का ही इस्तेमाल किया जाएगा। इसके तहत जहां भी किसी फसल का बाजार भाव न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे गिर जाता है, सरकार खरीद शुरू कर देती है।

बदलाव सिर्फ यह है कि सरकार ने बजट में किए मजाक को सुधारते हुए खरीद के लिए सिर्फ 200 करोड़ रुपए के बजाय लगभग 16,000 करोड़ रुपए देने का फैसला किया है। यह घोषणा भी की है कि सरकारी खरीद करने वाली एजेंसियां अब बैंकों से 45,000 करोड़ रुपए का कर्ज ले सकेंगी। इसमें सरकार ने सिर्फ गारंटी दी है, जेब से कुछ पैसा नहीं डाला है। असल में यह राशि भी ऊंट के मुंह में जीरा है और सरकार को कम से कम डेढ़-दो लाख करोड़ रुपए का इंतजाम करना चाहिए। इस बार भी लड्डू की थाली के सामने यह सच छुपा लिया गया कि केंद्र किसी भी फसल के कुल उत्पाद का सिर्फ 25त्न हिस्सा खरीदने में ही राज्य सरकार का सहयोग करेगा। बाकी का जिम्मा राज्य सरकार का रहेगा। जाहिर है, ना नौ मन तेल होगा ना राधा नाचेगी।

सरकारी खरीद का दूसरा तरीका है मध्यप्रदेश की बुरी तरह नाकाम हो चुकी भावांतर योजना, जिसमें किसान को उसको स्वयं मिले दाम के बजाय मंडियों के औसत दाम और न्यूनतम समर्थन मूल्य में अंतर के हिसाब से भुगतान किया गया। इससे किसान को भारी नुकसान हुआ। जबकि व्यापारियों ने रातोंरात फसलों के दाम गिरा दिए और बाद में जमकर मुनाफा कमाया। सुधार किए बिना योजना देशभर में लागू करने से व्यापारियों-सटोरियों को ही मुनाफा होगा, किसानों को नहीं। तीसरा तरीका यह है कि सरकार की तरफ से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद का काम निजी व्यापारी करें। खरीद, ढुलाई, भंडारण और फिर बिक्री सबके जिम्मेदार वे, जिसके बदले सरकार उन्हें 15त्न तक शुल्क देगी। सवाल यह है कि फसल का बाजार भाव एमएसपी से काफी कम होगा, तो कोई व्यापारी उसे क्यों खरीदेगा? किसानों ने मांग की थी कि सरकार सिर्फ इतना नियम बना दे कि किसी भी व्यापारी का एमएसपी से नीचे फसल खरीदना अपराध माना जाए। इस पर केंद्र की चुप्पी के चलते कई संगठनों को आशंका है कि सरकार फसल खरीद का भी निजीकरण कर रही है।

नई नीति से सबसे बड़ी निराशा यह है कि इसमें सरकारी खरीद के सबसे बुनियादी सवालों को छुआ तक नहीं गया। देश के अधिकांश इलाकों में फसल खरीद की सुचारू व्यवस्था ही नहीं है और खरीद केंद्र नहीं हैं। ऐसे में किसान अपनी फसल किसे बेचेगा? लगता यही है कि एक बार फिर कुर्सियां लड्डू खा जाएंगी, किसान मुंह ताकता रह जाएगा। जिस दिन सरकार इस ‘ऐतिहासिक’ निर्णय की घोषणा कर अपनी पीठ थपथपा रही थी उस दिन महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश की मंडियों में मूंग की फसल आ चुकी थी। मूंग का एमएसपी है 6975 रुपए, लेकिन सरकारी वेबसाइट के मुताबिक यह मंडी में 3900 से 4400 रुपए के बीच बिक रही थी। मूंग के लड्डू तो कड़वे हो गए, क्या बाकी लड्डूओं की मिठास किसान के घर पहुंच पाएगी?

योगेंद्र यादव
विश्लेषक

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