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नई पहचान या सिर्फ भुलावा

Published: Jan 16, 2015 12:12:00 pm

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जैन समाज की देश ही नहीं, दुनिया में अपनी धाक है। यह धाक आज से नहीं, सैकड़ों सालों से है। अब..

जैन समाज की देश ही नहीं, दुनिया में अपनी धाक है। यह धाक आज से नहीं, सैकड़ों सालों से है। अब केन्द्र सरकार ने उसे अल्पसंख्यकों में शामिल करने का निर्णय किया है तो देश और समाज में एक बहस छिड़ गई है। बहस यह है कि अल्पसंख्यक दर्जा मिलने से जैन समाज को कौन सी नई पहचान मिलेगी? क्या वह आज जहां है, उससे ऊपर किसी मुकाम पर पहुंचेगा या यह दर्जा उसके लिए भी भुलावा ही साबित होगा?

प्रयाग शुक्ल, जाने-माने कवि और लेखक
अल्पसंख्यक दर्जा देने का कदम जरूरी नहीं लगता है। इससे तो समाज में विभेद ही पैदा होगा। किसी समुदाय की अपनी विशेषताएं होना ठीक है, लेकिन इसका कोई अंत ही नहीं है। दूसरी बड़ी बात ये है कि इस दर्जे से उस समुदाय को क्या लाभ मिलेगा? जैन समुदाय में ज्यादातर लोग तो अच्छी स्थिति में हैं। वैसे ही उनकी पहचान अलग से है, ऎसे में एक और पहचान बनाने की क्या जरूरत है? हमारा देश इतनी विविधताओं वाला देश है, सबकी अपनी परम्पराएं और धार्मिक रिवाज भी हैं। ऎसे में कितनों को अल्पसंख्यक का दर्जा देते चले जाएंगे।

समाज से भी तो पूछा जाए
ऎसा नहीं है कि अल्पसंख्यक बनाने से धार्मिक संस्थाओं का प्रबंधन ज्यादा आसान हो जाएगा। सभी जानते हैं कि बड़े शहरों में, जहां जैनियों की बहुतायत है, वहां अपनी संस्थाओं का प्रबंधन वे ही करते हैं। इसलिए नये दर्जे से कोई विशेष लाभ नहीं होने वाला है। यह कदम बेहद चौंकाने वाला है। सदियों से देश में जैनियों को अलग पहचान की जरूरत नहीं पड़ी है। यह केवल राजनीतिकलाभ लेने के लिए हुआ प्रतीत होता है। सत्ता का खेल इस तरह से चलना बहुत ही भयंकर है।

सरकार भले ही कहे कि इसे राजनीतिक लाभ के लिए अंजाम नहीं दिया गया, लेकिन लोग तो ऎसे निर्णयों को राजनीति की रोशनी में ही देखते हैं।
शिक्षण संस्थाओं में भी अपने समुदाय के लिए आरक्षण का कोई अंत नहीं है। अपने समुदाय के संस्कार तो आप घर-परिवार में भी दे सकते हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि खुद जैन समुदाय के बच्चे तमाम दूसरे स्कूलों में पढ़ते हैं। इसलिए यह तर्क भी ठीक नहीं लग रहा है। मेरा मानना यही है कि किसी समुदाय के नेतागण अपने वर्चस्व के लिए ऎसी चीजें करने लगते हैं। यह जरूरी नहीं है कि सारा जैन समाज अल्पसंख्यक दर्जा चाह रहा होगा। लेकिन जिन लोगों का समुदाय के संस्थानों पर ज्यादा नियंत्रण है, जिनका रूतबा है, उनकी वजह से इस कदम को अंजाम दिया गया होगा।

वरना बंटवारा दिखाई देगा
इस पूरे दौर में कोई बड़ी बहस इस मसले पर हमने देखी नहीं है। जितना मैं जानता हूं, तो यह मसला समुदाय विशेष के नेतागण द्वारा किया गया ज्यादा प्रतीत होता है। समाज के फोरम पर कोई बहस नहीं हुई, मीडिया में भी ऎसी कोई चर्चाएं नहीं हुईं, कभी भी इस मसले को एक बड़े सवाल के रूप में नहीं देखा गया। इसलिए इस फैसले पर सवाल है। भारत जैसे देश में विविधता बडे सुंदर स्वरूप में रही है। इसे एक समुदाय या धार्मिक स्तर पर ही रखना चाहिए। सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर लाएंगे, तो बंटवारा दिखाई पड़ेगा। इतना बड़ा देश है, जहां परम्पराओं-रिवाजों का अंत नहीं है। इसलिए इस विविधता को एक राजनीतिक या सामाजिक मान्यता देकर विभेद नहीं पैदा करना चाहिए।

पुरानी थी यह मांग
अनिल कुमार जैन, अहिंसा फाउंडेशन के अध्यक्ष
जैन समुदाय की ओर से उसे अल्पसंख्यक का दर्जा देने की मांग पिछले 50 साल से उठ रही थी। अब जाकर जैन समुदाय की आवाज को केंद्र सरकार ने माना है और उसे यह दर्जा दिया है। इस दर्जे के बाद जितनी भी जैन धार्मिक और सामाजिक संस्थाएं होंगी- मसलन, अस्पताल, स्कूल, मंदिर वगैरह-उनका प्रबंधन करने में अब हमें सहूलियत होगी। जैन समुदाय के जितने भी पुराने मंदिर हैं, जैसे- मध्यप्रदेश में कुंडलपुर मंदिर है, इन पर आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (एएसआई) की भूमिका हो जाती है। ऎसे में जो भी साज-सज्जा या नवीनीकरण करना होता है, उसमें हमें काफी दिक्कत आती है। अब अल्पसंख्यक का दर्जा होने से सरकार की दखल जैन समुदाय की सम्पत्तियों में बहुत कम हो जाएगी। इस दर्जे का बड़ा फायदा जैन समुदाय की संस्थाओं की ही होगा।

ये कोई आरक्षण नहीं है
बहुत सारे लोग जैन समुदाय को अल्पसंख्यक दर्जा मिलने के बाद भ्रमित हो गए हैं कि उसे आरक्षण मिलेगा, जो कि गलत है। अल्पसंख्यक दर्जे का आरक्षण से कोई लेना-देना नहीं है। आरक्षण तो पिछड़े तबकों के लिए होता है। जातिगत आरक्षण होता है। यहां अल्पसंख्यक दर्जे में इसकी कोई भूमिका नहीं होगी। इससे जैन मंदिरों में जो करोड़ों-अरबों की सम्पत्ति है, जिसके सरकार द्वारा अधिग्रहण का भय जैन समुदाय को रहता था, अब वह नहीं रहेगा। जैन समुदाय के जो स्कूल या अन्य शिक्षण संस्थान हैं, उनमें प्रबंधन जैन समाज के विद्यार्थियों को प्रवेश में प्राथमिकता दे सकता है। सभी अल्पसंख्यक अपने स्कूलों में सम्बंधित वर्ग के छात्र-छात्राओं को लाभ देते हैं। अब प्रबंधन कक्षाओं में जैन धर्म की शिक्षा भी दे सकता है। जैसा कि दूसरे अल्पसंख्यक भी करते हैं।

इतिहास रहा हमारे साथ
1909 में लॉर्ड मिंटो ने भारत में एक रिलीजियस काउंसिल बनाई थी, उसमें ईसाइयों और मुस्लिमों के साथ जैनियों को अलग से अल्पसंख्यक का दर्जा दिया गया था। लेकिन जब संविधान बना, तो जैन धर्म लिखा तो गया, लेकिन उसे अल्पसंख्यक का दर्जा देने की बात दब गई। 1973 में माइनॉरिटी एक्ट आया, तो भी सिख, बौद्ध, पारसी, मुस्लिम समुदाय को यह दर्जा मिला, पर जैन समुदाय को छोड़ दिया गया। जब जैन समुदाय ने इस बारे में कहा, तो राज्य स्तर पर जाने की बात हुई। लेकिन अब केंद्र स्तर पर होने से पूरा लाभ मिलेगा।

नहीं है कोई राजनीतिक मंशा
स्कूलों में बच्चों को छात्रवृत्ति की बात इस अल्पसंख्यक दर्जे में कही गई है। लेकिन अगर जिनका आय स्रोत अच्छा है, तो बच्चों को इसका लाभ नहीं मिलेगा। अब जैन समुदाय को धार्मिक-सामाजिक संस्थाओं के लिए जमीन भी सस्ती मिल पाएगी। इस दर्जे का राजनीतिक लाभ लेने की कोई मंशा नहीं है।

यूं तो हर जाति ही अल्पसंख्यक
प्रोफेसर दयानन्द भार्गव
जैनों को केन्द्र सरकार ने अल्पसंख्यक घोषित करने का निर्णय लिया है। जैन धर्मदर्शन का एक विनम्र छात्र होने के नाते इस निर्णय ने मेरे मन में अनेक प्रश्न पैदा कर दिए हैं। भगवान महावीर ने जन्मना वर्णव्यवस्था को मान्यता नहीं दी। उन्होंने स्पष्ट कहा कि ब्राह्मण या क्षत्रिय जन्म से नहीं प्रत्युत कर्म से होता है। ऎसे में यह मानना कहां तक उचित होगा कि जो जैन घर में पैदा हो जाए वह जैन है। किसी के जैन होने का निर्णय इसी आधार पर तो होगा कि वह जैन घर में पैदा हुआ है और इसी आधार पर उसे अल्पसंख्यक माना जाएगा।

ऎसी स्थिति में जैन एक जाति हो गई, धर्म न रहा। धर्म के रूप में तो जैन ग्रन्थों ने धर्म के तीन लक्षण दिए—अहिंसा, संयम और तप। क्या इस देश में अहिंसा, संयम और तप में श्रद्धा रखने वाले लोग सचमुच संख्या में अल्प हैं। मैंने तो सभी धर्माचार्यो से अहिंसा, संयम और तप की ही प्रशंसा सुनी है फिर वह धर्म कौन-सा है जो हिंसा, असंयम और भोगविलास में विश्वास रखता हो? क्या जैन भगवान महावीर के “सर्वोदयी तीर्थ” को पचास लाख लोगों के सीमित दायरे में ही बन्द कर देना चाहते हैं?

भगवान ऋषभदेव तो भागवतों के भी भगवान हैं, श्रीमद्भागवत उठा कर देख लीजिए। फिर जैन उन्हें अपने में समेट कर उन्हें बड़ा बना रहे हैं या छोटा कर रहे हैं? तथाकथित बहुसंख्यकों के भगवान राम जैनों के भी भगवान हैं। उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया था, जैन रामायण उठाकर देख लीजिए। यदि जैन ईश्वर को सृष्टिकर्ता न मानने के कारण अल्पसंख्यक हैं तो कल को सांख्यदर्शन के अनुयायियों को भी क्या इसी आधार पर अल्पसंख्यक मान लिया जाएगा।

जैन वेदों को प्रमाण नहीं मानते, अत: वे अल्पसंख्यक हैं तो दिगम्बर श्वेताम्बरों के आगमों को प्रमाण न मानने के कारण क्या अल्पसंख्यकों के बीच एक अन्य अल्पसंख्यक हो जाएंगे? स्थानकवासी और तेरापंथी जैन मूर्तिपूजक नहीं हैं तो क्या उन्हें मूर्तिपूजक जैनों से भिन्न धर्म वाला माना जाए? यदि शास्त्र भिन्न और पूजापद्धति भिन्न होने पर भी दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों एक हैं तो शास्त्र भिन्न और पूजापद्धति भिन्न होने पर भी हिन्दू और जैन एक क्यों नहीं जैसा कि हजारों वर्षो से एक रहे हैं?

यदि शास्त्रों की भिन्नता और पूजापद्धति की भिन्नता के आधार पर किसी समूह को अल्पसंख्यक मान लिया जाएगा तो जिन्हें आज बहुसंख्यक कहा जा रहा है उनमें से बीसियों अल्पसंख्यक समूह निकल आएंगे—आर्यसमाजी, प्रार्थनासमाजी, देवसमाजी, ब्रह्मसमाजी, कबीरपन्थी, दादूपन्थी आदि-आदि। स्वयं वेदान्तियों में शङक्र, वल्लभ, रामानुज, निम्बार्क, रामानन्द आदि-आदि आचार्यो के अनेक प्रतिष्ठित प्रस्थान हैं।

इनमें से यदि कोई भी कल को अल्पसंख्यक होने की मांग लेकर आ गया तो किस आधार पर हम उसे अल्पसंख्यक का दर्जा देने से इंकार कर सकेंगे? इन सबकी दार्शनिक मान्यताएं अलग हैं, शास्त्र अलग हैं, पूजापद्धतियां अलग हैं, फिर भी ये सब एक विराट् भारतीय समाज का हिस्सा हैं।
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