scriptशिक्षा के कारखाने | Education factories | Patrika News

शिक्षा के कारखाने

locationजयपुरPublished: Sep 06, 2019 11:52:45 am

Submitted by:

Gulab Kothari

शिक्षा का ढांचा सरकार तय करती है। नीतियां शिक्षाविद् बनाते नहीं। नौकरियां सरकार के हाथ मे हैं। सरकार कॉलेज तो खोलने का आतुर रहती है, न नौकरी देती है, न ही श्रम करना सिखाती है।

yoga, Gulab Kothari, Indian politics, opinion, work and life, religion and spirituality, dharma karma, tantra, gulab kothari articles, hindi articles, rajasthanpatrika articles, special article, rajasthan patrika article, gulab kothari article, education news in hindi, education

Education in India

इस देश का भविष्य कौन तय कर रहा है! सरकारें, मां-बाप अथवा शिक्षा व्यवस्था? एक बात और समझने की है कि बच्चे आज किसकी बात सुनकर फैसला करते हैं। न मां-बाप की, और न ही सरकार की। सरकार के पास तो कान होते ही नहीं, बस जवाब होता है या आश्वासन। मां-बाप बच्चों को सम्पत्ति मानते हैं। बच्चे तो मुक्त जीना चाहते हैं। साधन मां-बाप से ही मांगते हैं, किन्तु सलाह नहीं मानते। शिक्षा ही जीवन की सांत्वना है। नौकरी मिलना भाग्य की बात। फिर, मनचाही नौकरी!

शिक्षा का ढांचा सरकार तय करती है। नीतियां शिक्षाविद् बनाते नहीं। नौकरियां सरकार के हाथ मे हैं। सरकार कॉलेज तो खोलने का आतुर रहती है, न नौकरी देती है, न ही श्रम करना सिखाती है। हमारी त्रासदी यह भी है कि धर्म की तरह शिक्षा में भी राजनीति ने वोट बैंक तैयार कर करके इसको गहरी खाई में डाल दिया है। आज शिक्षा के नाम पर घर बेचकर जीवन के 15-20 वर्ष लगाना समझदारी नजर नहीं आती। शिक्षा, पहली बात तो यह है कि हमें समझदार ही नहीं बनाती। आगे चलकर ये ही लोग शिक्षा नीतियां तैयार करते हैं। इसीलिए आज भारतीय संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान शिक्षा से बाहर हो गए। हमारा साधारण अथवा उच्च शिक्षा प्राप्त कोई भी व्यक्ति भारतीय संस्कृति से परिचित नजर नहीं आता। आजादी के बाद भी हम अपने देशी बच्चों को शिक्षा के द्वारा विदेशी भी बना रहे हैं और उन्हें व्यक्तित्व निर्माण के मानवीय-नैसर्गिक मूल्यों से दूर भी कर रहे हैं। आज की शिक्षा का यही लक्ष्य रह गया है।

देश में उच्च शिक्षा का अलग मंत्रालय है। राज्यों में भी है। ठेका लेकिन यूजीसी (यूनिवर्सिटी ग्राण्ट कमीशन) को दे रखा है। इसमें कितने लोग हैं जो भारतीय संस्कृति के विकास के प्रति कटिबद्ध हैं? उच्च शिक्षा के माध्यम से कौनसा स्तर हम देश में शिक्षित वर्ग का पैदा कर सके? व्यक्ति आज जितना अधिक शिक्षित होता है, वह समाज के काम आने के स्थान पर स्वयं के लिए जीने लग जाता है। समाज के लिए विदेशी हो जाता है। हम एक ओर जातिवाद को समाज का नासूर मानते हैं, वहीं शिक्षित वर्ग की अपनी जातियां और पंचायतें खड़ी करवा दीं। डॉक्टर, वकील, सीए, अधिकारी हर वर्ग की राष्ट्रीय संगठनात्मक कार्यशैली जातियों की तरह ही कार्य कर रही हैं।

इससे भी बड़ा नुकसान उच्च शिक्षा को शैक्षणिक आधार देने के बजाए, गुणवत्ता को विस्मृत करके बाजारवाद की तरह चलाना है। स्नातक तो ऐसे निकल रहे हैं-हर साल, जैसे कारखानों से टीवी-फ्रीज निकल रहे हैं। सब के सब एक जैसे। ज्ञान में ‘अंगूठा छाप’ भी इसी गति से बढ़ रहे हैं। आगे पढऩे वालों के शोधग्रन्थ कोई पढ़ता है क्या? दस प्रतिशत भी पढऩे लायक नहीं मिलेंगे। यूरोप-अमरीका में शोध करने वालों को बरसों लग जाते हैं। यहां आप किसी से, धन देकर, लिखवा सकते हैं। वायवा भी हो जाता है। डिग्री भी मिल जाती है। नौकरी?

शिक्षा में राजनीति का आना और स्वार्थपूर्ति के आगे देश को अंधेरे में धकेलते जाना इसका एक प्रमुख कारण बन गया है। यूजीसी के नियम कायदों की भी धज्जियां इसीलिए उड़ती रहती हैं। जिसको चाहो, पर्ची भेजकर कुलपति बनवा दो, प्रोफेसर बनवा दो। परिणाम देने की न बाध्यता है, न प्रतिबद्धता। इसी का परिणाम है कि हमारे प्रोफेसर शिक्षा जगत् में भी देश के बाहर अपनी पहचान नहीं बना पाते। हमारे कितने शोध ग्रन्थों का हवाला विदेशी लोग देते हैं-अपने पेपर्स में? हमारे पास बजट होते हैं, गुणवत्ता नहीं होती। कोई हमारे विश्वविद्यालयों की विभागीय संगोष्ठियों का स्वरूप नजदीक जाकर देखे, तो सब कुछ स्पष्ट हो जाएगा। इने-गिने चहेतों के बूते यह आयोजन शिक्षा के चेहरे की पुताई के लिए काफी है। देश एवं समाज के प्रति कहीं लेशमात्र दर्द दिखाई नहीं देगा। जिस तरह के पेपर पढ़े जाते हैं, उनका संकलन पढऩे से स्पष्ट हो जाएगा।

एक ओर यह चर्चा सुन रहे हैं कि यूजीसी के स्थान पर नई व्यवस्था तैयार की जा रही है। दूसरी ओर यूजीसी के नए फैसले भी दूरदृष्टि विहीन दिखाई पड़ते हैं। अब नया निर्णय आया है कि एक स्नातक (चार वर्षीय कोर्स करके) सीधा पीएचडी कर सकता है। तब शोधग्रन्थ कैसा होगा? जो आज एक निबन्ध अच्छा नहीं लिख पा रहा, उसे पीएचडी देकर, समकक्ष सरकारी नौकरी में लगाना विकास को कैसी गति देगा! कौन फिर स्नातकोत्तर (एम ए जैसी) पढ़ाई करना चाहेगा? डिग्री के लिए शोध लिखवाना, पास करवाना कितना बड़ा कारखाना बन जाएगा। आज तो ७५ प्रतिशत हाजरी के झूठे प्रमाण-पत्र ही बहुत बड़ा व्यापार हैं। ऐसे लोगों को नौकरी नहीं मिले तो क्या यह यूजीसी का अपमान नहीं?

प्रश्न यह है कि यूजीसी महत्वपूर्ण है, डिग्रियां बांटना महत्वपूर्ण है, आंकड़ों का संग्रह जनता को दिखाना महत्वपूर्ण है? जिस शिक्षा में गुरु का कोई दायित्व नहीं रह गया, उसके पढ़ाये छात्र-छात्रा दर-दर ठोकरें खाएं, प्रोफेसर दो लाख का वेतन पाए, तब क्या यह देश शर्मसार नहीं होना चाहिए? आज शिक्षा और मिड-डे-मील की सोच में अन्तर ही क्या रह गया है? अच्छे नागरिक पैदा करना शिक्षा विभाग का उद्देश्य नहीं रह गया है। शिक्षित व्यक्ति देश के काम आता है या नहीं, यह शिक्षा नीति का अंग ही नहीं है। हम तो जो हैं उसी के सहारे विश्व गुरु बन जाने के सपने देखते हैं। आज तक हमारा कोई भी संस्कृत या वैदिक संस्थान हमारे शास्त्रों के ज्ञान को विज्ञान की भाषा नहीं दे पाया। हम पाश्चात्य वैज्ञानिकों के प्रश्नों के उत्तर आज भी देने की स्थिति में नहीं हैं। तब क्योंकर संस्कृत सेवा के लिए प्रोफेसरों का सम्मान किया जाता है? यह सम्मान उन विदेशियों को जाना चाहिए जो अपनी शोध से हमारा मान बढ़ाते हैं।

आज उच्च शिक्षा ही हमारे ज्ञान का सबसे बड़ा अपमान बन रही है। व्यावसायिक शिक्षा का इससे कोई सम्बन्ध नहीं है। जीवन और प्रकृति का स्वरूप, सामंजस्य और दायित्वबोध ही इस शिक्षा का लक्ष्य हो। आज जैसे-जैसे हम उच्च शिक्षा में आगे बढ़ते हैं, हम पर दुधारी तलवार की मार पड़ती है। एक, देश-धरती से हम दूर हो जाते हैं। अकेले अपने पेट के लिए जीने लगते हैं। दो, हमारा व्यक्तित्व अपूर्ण होता चला जाता है। आत्म-ज्ञान शून्य।

या तो हम मानवता का निर्माण करें, या शिक्षा के कारखाने बन्द कर दें। आज विदेशी सामान हमारे यहां बनने लगा-भारतीय हो गया। वैसे ही विदेशी शिक्षा भी भारतीय कहलाने लग गई।

loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो