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बंग देश के लोकतंत्र पर खतरा बढ़ा!

Published: Oct 18, 2017 02:50:33 pm

बांग्लादेश में इन दिनों न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच टकराव चरम पर है, इसका कारण है 2014 में किया गया सोलहवां संविधान संशोधन

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– दीपक के. सिंह, द. एशिया मामलों के जानकार

यदि बांग्लादेश संसद को संविधान संशोधन को स्वीकृत करवाना ही था तो उसके लिए लोकतांत्रिक तरीके से आम जनता के बीच राष्ट्रीय स्तर पर अपनी बात रखनी चाहिए थी। कम से कम संसद के भीतर तो राजनीतिक दलों के बीच आम सहमति बनाने की कोशिश की जानी चाहिए।
बांग्लादेश में इन दिनों न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच टकराव चरम पर है। इसका कारण है 2014 में किया गया सोलहवां संविधान संशोधन। इस संशोधन के तहत देश की संसद को अधिकार दिया गया था कि वह सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सहित अन्य न्यायाधीशों और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों पर महाभियोग का इस्तेमाल कर सकेगी। यह इस्तेमाल भी भ्रष्टाचार, कार्य में अक्षमता जैसे साधारण आरोपों के आधार पर हो सकेगा।
अभी तक बांग्लादेश के मुख्य न्यायाधीश और दो अन्य न्यायाधीश मिलकर तय कर सकते हैं कि किसी न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग चलाया जाए या नहीं। लेकिन, इस व्यवस्था को सोलहवें संविधान संशोधन के जरिये बदलने की कोशिश की गई। बांग्लादेश में संसदीय लोकतंत्र है और संविधान संशोधन इस लोकतांत्रिक व्यवस्था पर आघात माना जा रहा था। इन हालात के मद्देनजर 2016 में उच्च न्यायालय में इस संशोधन के विरुद्ध याचिका दायर की गई। उच्च न्यायालय ने स्पष्ट तौर पर कहा कि संसद इस तरह का कोई फैसला नहीं ले सकती।
यह असंवैधानिक है और यह न्यायपालिका की स्वायत्तता पर सीधा हमला है उसके कार्य में सीधा हस्तक्षेप है। इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। संसद ने इसे अपना अपमान समझा और उच्च न्यायालय का फैसला सही है या नहीं, यह तय करने के लिए मामला बांग्लादेश के सर्वोच्च न्यायालय को सौंपा गया। सर्वोच्च न्यायालय में सात न्यायाधीशों की पीठ बनी और उसके प्रमुख थे बांग्लादेश के मुख्य न्यायाधीश सुरेंद्र कुमार सिन्हा। वे बांग्लादेश के पहले अल्पसंख्यक यानी हिंदू मुख्य न्यायाधीश भी हैं। उनकी अध्यक्षता में इस संविधान पीठ ने उच्च न्यायालय के फैसले को सही करार दिया।
यही नहीं संविधान पीठ का यह फैसला सर्वसम्मति से दिया गया। इसका सीधा सा अर्थ यही था, बांग्लादेश की शीर्ष अदालत भी मानती है कि संसद को न्यायाधीशों के विरुद्ध महाभियोग चलाने की शक्ति नहीं दी जा सकती। यह स्थिति बांग्लादेश ही नहीं दुनिया के किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए अच्छी नहीं कही जा सकती। संविधान संशोधन को अक्षरश: मान लिया जाए तो न्यायपालिका के लिए न्याय करना बेहद मुश्किल हो जाएगा। लोकतंत्र की रक्षा के लिए न्यायपालिका का स्वायत्तता के साथ बिना किसी दबाव के काम करना जरूरी है।
यदि सोलहवां संविधान संशोधन सही माना जाए तो न्यायपालिका देश की कार्यपालिका या विधायिका के दबाव में काम करने को मजबूर होगी। न्यायाधीश सांसदों और बड़े नेताओं के विरुद्ध तो कोई फैसला दे ही नहीं सकेंगे। नेता उन्हें साधारण आरोप से महाभियोग का डर दिखाकर बचते रहेंगे। इन परिस्थितियों में लोकतंत्र के बचने की कोई उम्मीद ही नहीं रह जाती। लेकिन, जब सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आया तो कार्यपालिका की नाराजगी और बढ़ गई। यहीं से न्यायपालिका के कामकाज में राजनीतिक दखल की शुरुआत हो गई। बांग्लादेश की प्रधानमंत्री और आवामी लीग की नेता शेख हसीना ने मुख्य न्यायाधीश पर कई निजी आरोप लगाए। उन्हें भ्रष्टाचारी भी कहा गया। मामला यहीं शांत नहीं हुआ।
बांग्लादेश के राष्ट्रपति अब्दुल हामिद ने भी उन पर भ्रष्टाचार, अनैतिक कार्य करने वाला, धन शोधन करने वाला जैसे 11 आरोप लगा डाले। राष्ट्रपति के कहने पर शीर्ष अदालत के चार न्यायाधीशों ने सिन्हा के साथ विशेष बैठक की। इन न्यायाधीशों ने उन्हें सलाह दी कि वे इन आरोपों से इनकार कर दें। लेकिन, सिन्हा ने ऐसा करने से इनकार कर दिया और कहा कि ऐसा करने से पहले वे इस्तीफा दे देंगे। इस पर इन न्यायाधीशों ने बयान दिया कि उनके लिए सिन्हा के साथ काम करना अब संभव नहीं होगा।
इसके बाद मुख्य न्यायाधीश ने इस्तीफा देने की बजाय छुट्टी पर जाने के लिए आवेदन कर दिया जिसे राष्ट्रपति ने मंजूर भी कर लिया। वे देश छोडक़र ऑस्ट्रेलिया चले गए तो उनके बारे में सरकार की ओर से बयान आया कि वे बीमारी की वजह से लंबी छुट्टी पर चले गए हैं। इसके जवाब में सिन्हा ने बयान दिया है कि वे पूर्णरूप से स्वस्थ हैं और वर्तमान हालात से आहत हैं। देश में हालात स्थिर होते ही वे लौट आएंगे। उधर, बांग्लादेश नेशनल पार्टी (बीएनपी) की नेता खालिदा जिया का कहना है कि सिन्हा अपनी मर्जी से छुट्टी पर नहीं गए हैं बल्कि उन्हें दबाव में लाने के लिए लंबी छुट्टी पर जाने को मजबूर किया गया है। जनवरी 2018 में मुख्य न्यायाधीश का कार्यकाल पूरा हो रहा है।
ऐसा लगता है कि सरकार इस मामले में पुनर्विचार याचिका दाखिल करेगी और संभवत: न्यायपालिका इस याचिका में संविधान संशोधन को सही ठहरा दे। इससे कम से कम सत्तारूढ़ दल के विरुद्ध फैसला देना तो असंभव ही हो जाएगा। इस तरह बांंग्लादेश में लोकतंत्र के लिए खतरा बढ़ता लग रहा है। यदि वहां संविधान संशोधन को स्वीकृत करवाना ही था तो उसके लिए लोकतांत्रिक तरीके से आम जनता के बीच राष्ट्रीय स्तर पर अपनी बात रखनी चाहिए थे। कम से कम संसद के भीतर तो राजनीतिक दलों के बीच आम सहमति बनाने की कोशिश की जानी चाहिए। लेकिन, ऐसा कोई कदम नहीं उठाया गया। इन हालात को देखें तो भारतीय लोकतंत्र कहीं बेहतर बल्कि श्रेष्ठ नजर आता है।
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