कोई एनजीओ अदालत तक पहुंच गया तो सरकार को लोक दिखावे कि लिए ऐसी जांचें भी करनी पड़ जाती हैं और रिपोर्ट भी बनानी पड़ जाती हैं। अदालतों की नजर हटी नहीं कि फिर सब वैसे ही चलने लगता है। ताज्जुब होता है ये सुनकर भी कि सिर्फ सात सांसदों और ९८ विधायकों की सम्पत्ति में ही बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है। अपने सांसदों, विधायकों और पार्षदों के बारे में सब जानते हैं। जनप्रतिनिधि बनने से पहले उनकी स्थिति सबको पता होती है और चुनाव जीतने के बाद किसी से छिपी नहीं रहती। ये बगैर धंधे-पानी के रातों-रात धनपति बन जाते हैं।
मोटरसाइकिल से महंगी कारों तक पहुंच जाते हैं तो साधारण घर कोठियों में बदल जाते हैं। जिनके पास एक बीघा जमीन नहीं होती है, चुनाव जीतने के बाद वे बड़े-बड़े फार्महाउसों के मालिक बन जाते हैं। दूसरे के नाम पर बड़ी-बड़ी सम्पत्तियां खरीद ली जाती हैं। किसका क्या बिगड़ता है? अदालत की फटकार के बाद दिखावे के लिए जांचें चलती रहती हैं। एनजीओ हैं कि अदालतों से गुहार लगाते-लगाते थक जाते हैं। लेकिन जांच कभी किसी निष्कर्ष तक पहुंचती ही नहीं। सरकार में बैठे लोगों को भी सब पता होता है और सडक़ों की राजनीति करने वाले विपक्ष से भी कुछ छिपा नहीं रहता।
सबसे बड़ा सवाल यही कि ये सब खत्म होगा कैसे और करेगा कौन? चुनाव लडऩे के लिए करोड़ों रुपए लगते हैं। एक नम्बर की मेहनत वाली कमाई से चुनाव लडऩे का साहस भला कौन समझदार दिखाएगा? भ्रष्टाचार की बढ़ती बीमारी के इस मूल कारण को ईमानदारी से समझ, इसके अनुरूप ही इलाज करने की आवश्यकता है। सिर्फ अदालतों में रिपोर्ट पेश करने से समस्या का हल निकलने वाला नहीं। देश को चलाने वाले चंद कर्णधार बीमारी को नासूर बना चुके हैं जिसका इलाज निकट भविष्य में तो होता नजर आ नहीं रहा।