मेरा मानना है कि ऐसा जानबूझकर तो नहीं होता है लेकिन अनजाने में भी होता है तो यह न्याय के लिए घातक ही कहा जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय कानून के रूप में देश भर की अधीनस्थ अदालतों पर बाध्य होते हैं। यहां भी दो प्रकार के निर्णय अदालतों के समक्ष है उनमें से एक तीन सदस्यीय पीठ का है तथा दूसरा, दो सदस्य पीठ का है। ऐसे निर्णय अधीनस्थ न्यायालयों में लागू करने में बाधा उत्पन्न होती है। यह एक ऐसा विषय है जिस पर तुरंत
ध्यान नहीं दिया गया तो देश की न्याय व्यवस्था के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है। देश में न्यायिक अनुशासनहीनता को लेकर पहले भी समय-समय पर कई सवाल उठाए जाते रहे हैं।
जहां तक उच्च न्यायालयों का प्रश्न है वहां पर ऐसे निर्णयों पर नियंत्रण किया जा सकता है क्योंकि हाईकोर्ट में रजिस्ट्रार क्लासिफिकेशन होता है परंतु सुप्रीम कोर्ट में इस प्रकार की अनदेखी सवाल खड़े करती है। तीन जजों की पीठ एक दिन पहले डॉ. हिमांशु गोयल के प्रकरण में राहत देने से मना करती है और उसी प्रकरण में दो जजों की पीठ अगले ही दिन राहत दे देती है। इस पर सुप्रीम कोर्ट के गलियारे में चर्चाओं का बाजार गर्म है। हो सकता है कि कुछ कानूनी मुद्दे रहे हों जो तीन जजों की पीठ के समक्ष उठने से रह गए हों। न्याय होना ही नहीं चाहिए अपितु होता दिखना भी चाहिए।
इस सम्बंध में सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार को सारे प्रकरण जिनमें न्यायिक अनुशासनहीनता हुई हो, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के ध्यान में लाना चाहिए। शीर्ष अदालत से न्याय की गंगा बहती है और ऊंचाई पर उसका स्वच्छ होना बहुत ही आवश्यक है। सुप्रीम कोर्ट से पूरे देश में न्याय का संदेश जाता है और ऐसे सभी प्रकरणों से बचा जाना चाहिए जिनके सम्बंध में किसी को भी चर्चा का भी अवसर मिले। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय मार्गदर्शन करते हैं और उनसे देश के कानून का विकास होता है।