दरअसल ऐसे बंद के आह्वान भले ही किसी राजनीतिक दल और संगठन विशेष के मकसद को पूरा करते हों लेकिन एक तरह से समूचा देश लकवाग्रस्त हो जाता है। कहने को तो जनता को राहत पहुंचाने के इरादे से ऐसे बंद होते हैं लेकिन हकीकत इससे उलट है। बंद के ऐसे आह्वान करने वालों को शक्ति प्रदर्शन का मौका जरूर मिलता है लेकिन जनसाधारण को तो तकलीफ ही पहुंचती है। बंद क्या हुआ, जिधर नजर डालो उधर शोर और हंगामा। तोड़-फोड़ व आगजनी और सरकारी संपत्ति को नुकसान। यह तो तब है जब सुप्रीम कोर्ट तक ने हड़ताल-बंद आदि को लेकर कई बार प्रतिकूल टिप्पणियां की हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा है कि किसी को कार्यस्थल पर जाने से नहीं रोका जा सकता, प्रतिष्ठान बंद करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता और किसी के आवागमन के साधनों को बाधित नहीं किया जा सकता। लेकिन हमारे यहां तो लोगों को ऐसा लगता है कि कानून बनते ही इसलिए हैं कि इनको तोड़ा जाए।
जब सुप्रीम कोर्ट की ही परवाह नहीं तो फिर यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि अराजकता का ऐसा दौर थम पाएगा। ट्रेनों पर पथराव, सडक़ों पर टायर जलाना व वाहनों में तोड़-फोड़ आदि ऐसे दुष्कृत्य हैं जिनसे जनजीवन अस्तव्यस्त होते देर नहीं लगती। यह कहा जा सकता है कि अपनी मांगों को लेकर आंदोलन सबका अधिकार है।
अव्वल तो ऐसे बंद को समर्थन मिलना ही नहीं चाहिए। लेकिन जरूरी भी हो तो आए दिन बंद का आह्वान तो रोका ही जाना चाहिए। बंद के आह्वान की समुचित वजह तय हों। साथ ही इसके मौके सीमित करना भी एक समाधान हो सकता है। इस तरह की सख्ती भी कि यदि बंद के दौरान कोई नुकसान हुआ तो उसकी भरपाई संबंधित दल अथवा संगठन से होगी। वैसे तो अहिंसक आंदोलन ही हर समस्या का समाधान है।