राजस्थान में भी निजी क्षेत्र की नौकरियों में ऐसे ही आरक्षण पर विचार-विमर्श जारी है। एक तरफ भूमण्डलीकरण के दौर में हम उम्मीद करते हैं कि अमरीका और ब्रिटेन सरीखे देश हमारे युवाओं के लिए रोजगार के दरवाजे खोलें, दूसरी तरफ देश में ही ऐसी विरोधाभासी विचारधारा कि अमुक राज्य में दूसरे राज्यों के लोगों को रोजगार के अवसरों पर बंदिशें लगाई जाएं। अमरीका तक जब ‘अमरीका फर्स्ट’ की बात कहते हुए स्थानीय लोगों को प्राथमिकता देने की बात करता है, तो ‘ग्लोबल विलेज’ की अलग ही तस्वीर उभरती नजर आती है।
किसी भी प्रदेश में स्थानीय लोगों को रोजगार मिलता है तो पलायन की समस्या का एक हद तक समाधान होता है, इसमें कोई संदेह नहीं। लेकिन ऐसे नियम-कायदे बनाने के फायदे-नुकसान दोनों हैं। बड़ा संकट संबंधित क्षेत्र में वांछित कौशल का भी है। हो सकता है कि स्थानीय स्तर पर कौशल की अनुपलब्धता उद्योग-धंधों के लिए समस्या बन जाए। यह भी संभव है कि बाहरी लोगों के नौकरियां हासिल करने से स्थानीय लोगों के लिए रोजगार के अवसर कम हो जाएं। कोई राज्य विशेष सिर्फ अपने हितों के लिए ही कानून बनाए, यह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसे कानून का असर समूचे देश पर पड़ता है। आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश व दूसरे राज्यों की तरह ही अगर सभी राज्य अपने स्तर पर स्थानीय को रोजगार में प्राथमिकता को लेकर कानून-कायदे बनाने लगे तो फिर कई तरह की विसंगतियां ही पैदा होंगी और राष्ट्रबोध भी प्रभावित होगा।
दूसरे देश भी यदि हमारे यहां के युवाओं के लिए रोजगार के दरवाजे बंद करने लगे तो? दोनों ही खतरों को देखते हुए ऐसे विरोधाभासों को दूर करने की जरूरत है। राज्य अपने यहां उद्योग-धंधों को अनुमति देते समय यह जरूर ध्यान रखें कि इनमें रोजगार की दृष्टि से असंतुलन पैदा न हो। कहीं ऐसा न हो कि स्थानीय लोगों के रोजी-रोटी के साधन बिल्कुल बर्बाद हो जाएं। यह भी ध्यान रखना होगा कि सरकारों के ऐसे फैसलों के कारण कहीं क्षेत्रवाद की समस्या गंभीर रूप न ले ले।