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उठो! कृष्ण बनने तक

locationजयपुरPublished: Jun 10, 2019 11:48:30 am

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Gulab Kothari

क्या मैं कृष्ण नहीं, सूर्य नहीं? क्या कृष्ण की तरह मैं भी प्राणीमात्र के शरीरों में अंश बनकर नहीं रह जाऊंगा? सभी प्राणी क्या एक-दूसरे के अंश नहीं हैं? सम्पूर्ण एक पिता की सन्तान ही तो हैं। यही गीता का मूल ज्ञान है।

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आज कोई छात्र-छात्रा यदि यह प्रश्न करे कि यदि गीता को याद कर लिया जाए, कर्मयोग-ज्ञानयोग-भक्तियोग की सिद्धि भी कर ली जाए तो जीवन में लाभ क्या होगा? आत्म साक्षात्कार की भी तो कोई उपयोगिता होनी चाहिए। क्या अन्य किसी धर्म में भी आत्म साक्षात्कार की उपयोगिता का दिग्दर्शन मिलता है? विवस्वान् ने सुना तो क्या उसका स्वरूप और कर्म बदल गया? मात्र अर्जुन के हृदय परिवर्तन के आधार पर कैसे प्रमाणित करेंगे कि सम्पूर्ण मानवता का रूपान्तरण करने की क्षमता है इस गीता ज्ञान में?

प्रश्न को देखने के भी कई मार्ग हैं। कृष्ण बनकर गीता को आत्मसात् करें। अर्जुन की स्थिति में स्वयं को रखकर ज्ञान को स्वयं पर लागू करने की स्थिति को अनुभूत करें। सूर्य और अर्जुन के कर्म की समानता का आकलन करके गीता-ज्ञान की सम अलोचना करें। ‘ममैवांशो जीवलोके…’ के अनुसार सूर्य भी उन्हीं का अंश है। वही पिता है। सूर्य जगत् का पिता है। हम भी सूर्य के अंश हैं। सूर्य हैं। पिता ही पुत्र बनता है। पिता के सभी गुण पुत्र में आते हैं। गोलोकवासी कह रहे हैं कि मैं ही सूर्य हूं, षोडशी हूं। ज्ञान और कर्म रूप में चेतन और जड़ मैं ही हूं। चेतन प्राणी भी अधिकांशत: भोग योनियां ही हैं। मनुष्य ही कर्मयोनि है। वही इच्छानुसार कर्म कर सकता है। अभ्यास करके इच्छा पर नियंत्रण कर सकता है। अन्य प्राणी ऐसा नहीं कर सकते। सृष्टि की सभी योनियां भी उसका ही तो परिवर्तित स्वरूप हैं। मनुष्य ही कर्म फलों के कारण अन्य योनियों में जाता है। प्रत्येक प्राणी मनुष्य रूप में जीने के बाद ही कर्मों के कारण अन्य रूप धारण कर रहा है। अत: कृष्ण ठीक ही कह रहे हैं कि-‘ममैवांशो जीवलोके, जीवभूत सनातन:’। विश्व का यही स्वरूप ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ कहलाता है। बिना गीता को आत्मसात् किए यह बात समझ नहीं सकते।

गीता जीवन को जीना सिखा देती है। कर्म तो करना ही है, चाहो या नहीं चाहो। गीता एक दृष्टि देती है। सूरज के कर्म को देखो। क्या कुछ फल मांगता है अथवा स्वयं को कर्ता समझकर तपता है। इससे कठोर कर्म और क्या होगा? तब ज्ञानी बनकर, कर्महीन होकर, जीवन का अपमान ही तो करोगे! गीता पढ़ोगे तो अर्जुन भी बनोगे और विवस्वान् को भी समझ जाओगे कि वही हमारा पिता है। हमें भी उसकी तरह ही जीना है। कहां नहीं है वह! कृष्ण का पुत्र है, सातों विभक्तियों में उपस्थित है।

तब क्या मैं कृष्ण नहीं, सूर्य नहीं? क्या कृष्ण की तरह मैं भी प्राणीमात्र के शरीरों में अंश बनकर नहीं रह जाऊंगा? सभी प्राणी क्या एक-दूसरे के अंश नहीं हैं? सम्पूर्ण एक पिता की सन्तान ही तो हैं। यही गीता का मूल ज्ञान है। अंश में चूंकि अंशी के सभी गुण रहते हैं, अत: प्रत्येक जीव ‘कृष्ण’ का सूक्ष्म रूप ही है। उसमें क्षमता है कि स्वयं को पूर्ण विकसित कर सके। उसके बाद ही उसको अपनी आत्मा का स्वरूप सही तरह समझ में आएगा। जीवन प्रकृति से जन्मा, उसी की गोद में, उसी की इच्छा से पलता है-चलता है। मेरी कोई कामना नहीं टिकती उसके आगे। कामना पर अड़ जाना मेरी सबसे बड़ी हार होती है। कोई स्त्री प्रकृति को चुनौती देकर पुरुष की तरह जी सकती है भला! वह तो स्वयं प्रकृति ही है। पुरुष तो बस एक ही है।

गीता जीवन को कर्मयोग से शुरू करके ज्ञानयोग-भक्तियोग के सहारे बुद्धियोग में स्थापित कर देती है। फिर क्या है-आप ही कृष्ण रूप हो जाएंगे। आप अपने भीतर ही कृष्ण का विराट् स्वरूप पहचान सकेंगे। सारे योग आप खुली किताब की तरह पढ़ सकेंगे। इसके आगे आपको समझ में आएगा कि आपका प्राकृतिक स्वरूप क्या है। गीता के दसवें अध्याय में कृष्ण ने अपने स्वरूप की विस्तार से व्याख्या की है। आपको लगेगा कि मैं भी इन व्याख्याओं को स्वयं पर लागू कर सकता हूं। आप जन्म और पुनर्जन्म के रहस्य सहज ही समझ जाओगे। कृष्ण कहते हैं-

दसवां अध्याय
20. मैं ही हूं और सम्पूर्ण प्राणियों के अन्त:करण (हृदय) में स्थित आत्मा भी मैं ही हूं।
21. मैं अदिति के पुत्रों में विष्णु (वामन) प्रकाशमान वस्तुओं में किरण वाला सूर्य हूं। मैं मरुतों का तेज और नक्षत्रों का अधिपति चन्द्रमा हूं।
23. मैं हूं। वसुओं में पवित्र करने वाली अग्नि और शिखर वाले पर्वतों में सुमेरु मैं हूं।
24. हे पार्थ! पुरोहितों में मुख्य मेरा स्वरूप समझो, सेनापतियों में कार्तिकेय और जलाशयों में समुद्र मैं हूं।
25 महर्षियों में भृगु, वाणियों में एक अक्षर प्रणव मैं हूं। सम्पूर्ण यज्ञों में जपयज्ञ स्थिर रहने वाला हिमालय मैं हूं।
26. सम्पूर्ण वृक्षों में पीपल, देवर्षियों में नारद, गन्धर्वों में चित्ररथ और सिद्धों में कपिल मुनि मैं हूं।
27. घोड़ों में अमृत के साथ समुद्र से प्रकट होने वाले उच्चै:श्रवा नामक घोड़ों को, श्रेष्ठ हाथियों में ऐरावत नामक हाथी को और मनुष्यों में राजा को मेरी विभूति मानो।
28. मैं सन्तान उत्पत्ति का हेतु कामदेव हूं और सर्पों में वासुकि मैं हूं।
29. नागों में अनन्त (शेषनाग) और जल जन्तुओं का अधिपति वरुण मैं हूं। पितरों में अर्यमा और शासन करने वालों में यमराज हूं।
30. दैत्यों में प्रहृलाद और गणना करने वालों में काल मैं हूं तथा पशुओं में सिंह और पक्षियों में गरुड़ मैं हूं।
31. पतित्र करने वालों में वायु, शस्त्रधारियों में राम मैं हूं। जल-जन्तुओं में मगर मैं हूं। और नदियों में गंगा जी मैं हूं।
32. सम्पूर्ण सृष्टियों के आदि, मध्य तथा अन्त मैं ही हूं। विद्याओं में अध्यात्म विद्या और परस्पर शास्त्रार्थ करने वालों का तत्त्व निर्णय के लिए किया जाने वाला वाद मैं हूं।
33. अक्षरों में अकार और समासों में द्वन्द्व समास मैं हूं। अक्षयकाल अर्थात काल का महाकाल सब ओर मुख वाला धाता पालन-पोषण करने वाला भी मैं ही हूं।
34. सबका हरण करने वाली मृत्यु और भविष्य में उत्पन्न होने वाला मैं हूं तथा स्त्री जाति में कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा मैं हूं।
35. गायी जाने वाली श्रुतियों में बृहत्साम और सब छन्दों में गायत्री छन्द मैं हूं। बारह महीनों में मार्गशीर्ष छह ऋतुओं में वसंत मैं हूं।
36. छल करने वालों में जुआ, तेजस्वियों में तेज मैं हूं। विजय मैं हूं। सात्विक मनुष्यों का सात्विक भाव मैं हूं।
37. वृष्णिवंशियों में वसुदेव पुत्र कृष्ण, पाण्डवों में अर्जुन मैं हूं। मुनियों में वेदव्यास, कवियों में कवि शुक्राचार्य भी मैं हूं।
38. दमन करने वालों में दण्डनीति, विनय चाहने वालों में नीति मैं हूं। गोपनीय भावों में मौन में हूं। और ज्ञानवानों में ज्ञान मैं ही हूं।
39. सम्पूर्ण प्राणियों का जो बीज है वह बीज भी मैं ही हूं। वह चर-अचर प्राणी नहीं है जो मेरे बिना हो। चर-अचर सब कुछ मैं ही हूं।

इस ज्ञान के बाद प्रत्येक आत्मा आपको अपना ही अंश दिखाई देने लगेगा। आप गीता के प्रवाचक महसूस करने लगोगे। प्रश्न यह उठता है कि उससे जीवन में क्या कर्म का स्वरूप बदल जाएगा?

हां! यही उद्देश्य है। कृष्ण के अवतार रूप का लक्ष्य आपके जीवन का लक्ष्य बन जाएगा। एक ओर तो आप समझ पाएंगे-‘कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
वहीं दूसरी ओर आपके सामने दीवार पर लिखा होगा-

‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम् ॥’
‘परित्राणाय साधूनां, विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥’ 4.7, 4.8 गीता।

अंधकार मनुष्य का शत्रु है। कर्म करने में बाधा बनता है। सूर्य इन असुरों को नष्ट करके कर्मात्माओं को अपने-अपने कर्म में लगा देता है। मुनि विश्वामित्र भी राम-लक्ष्मण को इसी प्रयोजन से दशरथ से मांग कर ले गए थे। अब आगे मुझे भी जीवन भर लोक संग्रह करते जाना है। बस, आप उधर ही चल पड़ेंगे।

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