खैर, हार के सवाल खुद ही आ जाते हैं। सबसे ज्यादा सवाल तो इस बात पर उठेंगे कि राजस्थान में अभी दिसंबर में कांग्रेस की सरकार आई है। 200 सीटों वाली विधानसभा में 99 सीटें जीतने वाली कांग्रेस बेहतर प्रदर्शन की उम्मीदों के बीच एक भी प्रत्याशी क्यों नहीं जिता पाई? यह सवाल तो मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी उठेंगे। इन तीन राज्यों की 65 सीटों में से कांग्रेस सिर्फ तीन जीतने में सफल हो पाई है। तीनों राज्यों में कांग्रेस सरकारों पर एक मॉडल देने की जिम्मेदारी थी, जिसकी कांग्रेस दूसरे राज्यों में मिसाल दे सके। लेकिन सिर्फ पांच महीने में ही तीनों राज्यों का डिलेवरी सिस्टम कठघरे में आ गया। इसकी वजह से माहौल कांग्रेस के पक्ष में बनने की बजाय विपक्ष में बन गया।
सवाल सिर्फ कांग्रेस के संगठन पर खड़े नहीं हो रहे हैं, बल्कि पूरे नेतृत्व पर भी खड़े हो रहे हैं कि आखिर कैसे वह अपनी स्थितियों को बेहतर नहीं कर पाए? माना कि चुनाव में मोदी मैजिक था, लकिन एक राष्ट्रीय दल के रूप में कांग्रेस का इतना लचर प्रदर्शन चिंतनीय है। मोदी मैजिक पंजाब-तमिलनाडु में तो नहीं चला! कांग्रेस के चुनाव प्रचार में ऐसी क्या खामी रह गई, जिसके कारण वह अपनी बात लोगों तक पहुंचाने में कामयाब नहीं हो पाई? वह 72 हजार रुपए की अपनी स्कीम लोगों को नहीं समझा पाई। वह नहीं बता पाई कि इस देश में मनरेगा, आरटीआइ, आरटीई, फूड सेफ्टी जैसी योजनाएं उसने ही शुरू की थीं। कुल मिलाकर कांग्रेस मतदाताओं का भरोसा जीतने में नाकाम रही और उसका परिणाम उसे 17 राज्यों में शून्य परिणाम के साथ भुगतना पड़ा। कांग्रेस के लिए यह सोचने का वक्त है कि उसे लोगों ने क्यों नकार दिया। यह वक्त कांग्रेस के लिए आत्मविश्लेषण का है। यह जानने का है कि आखिर क्यों जनादेश में उन्हें पूरी तरह से नकार दिया गया है? हर जनादेश एक संदेश लेकर आता है। अब कांग्रेस को चाहिए कि वह इसे स्वीकार कर अपनी राजनीतिक सोच और रणनीति में आमूल-चूल बदलाव लाए तथा देश को मजबूत विपक्ष देने की कोशिशों में जुटे।