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यहां पैरों तले बम हैं और कनपटी पर बन्दूक, लेकिन लोकतंत्र पर भरोसा है कि जाता नहीं

Bastar Election news: ये है आम मतदाता की जागरूकता। ये वोटर और भी विशेष हो जाते हैं जब समूचा विश्व इन्हें बस्तर के आदिवासियों के रूप में पहचानता है। पांच दशकों से नक्सली हिंसा झेल रहे ये आदिवासी हर चुनाव में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं, लेकिन….

रायपुरApr 20, 2024 / 11:53 am

चंदू निर्मलकर

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योगेश मिश्रा : बस्तर आज जल्दी जागा। वैसे तो यह आदिवासी क्षेत्र सूर्य की किरणों के बिखरने के पहले ही अपनी दिनचर्या प्रारम्भ कर देता है, लेकिन आज बात कुछ और ही थी। एक बार फिर यहां चुनाव हो रहा था। सम्पूर्ण विश्व में केवल भारत ही ऐसा देश है जहां चुनाव को लोकतंत्र के त्यौहार की संज्ञा दी गई है। फिर यह तो आम चुनाव है। मतदान प्रारम्भ होने का समय प्रातः सात बजे का निर्धारित था, लेकिन पोलिंग स्टेशनों के बाहर करीब 5:30 बजे से ही कतारें बनने लगी थीं। ये है आम मतदाता की जागरूकता। ये वोटर और भी विशेष हो जाते हैं जब समूचा विश्व इन्हें बस्तर के आदिवासियों के रूप में पहचानता है। पांच दशकों से नक्सली हिंसा झेल रहे ये आदिवासी हर चुनाव में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं, लेकिन इनके अस्तित्व को पिछड़ेपन और अदृश्य विकास से जोड़ा जाता रहा है। विपरीत परिस्थितियों में भी लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए निर्भीक होकर अपने घरों से बाहर निकलने वाले ये आदिवासी वातानुकूलित कमरों में टेलीविजन पर चुनाव को मनोरंजन की तरह निहारते और अपनी ऊँगली में स्याही लगाने से परहेज करने वालों को हर बार जैसे मुंह चिढ़ा कर कहते हैं – हम वोट देते रहेंगे, तुम विकास का आनंद लेते रहो।
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बस्तर कश्मीर नहीं है लेकिन वहां की स्थिति कश्मीर से कम भी नहीं है। आतंकी वहां भी थे, यहां भी हैं। विकास वहां भी बाधित था, यहां भी है। समस्याएं दोनों की एक सी अवश्य प्रतीत होती हैं लेकिन हैं नहीं, इसलिए समाधान अलग-अलग हैं। चूँकि केंद्र बस्तर है, बात इसी पर करते हैं। अतीत को कुरेदने से समझ आएगा कि सरकारें आईं और गईं, बस्तर का विकास केवल कागजों में दिखा, यथार्थ में जंगल संकुचित हो गए, आदिवासी अपने ही घर में अप्रवासी बन कर रह गए और लोकतंत्र की छाती पर सवार हो गया नक्सलतंत्र।
पहले बस्तर में एक ही विषय था – विकास, अब दो हैं – विकास और नक्सल उन्मूलन। लम्बे समय तक राजनीतिक दलों ने दोनों विषयों को अपने चुनावी घोषणापत्र का स्वर्ण वाक्य बना कर आदिवासियों को छला। नक्सलियों ने इस छल का लाभ उठा कर सरकार और आदिवासियों के मध्य उपजी खाई को और गहरा कर दिया और अपनी जड़ मजबूत कर ली। कोई स्थिति यथावत नहीं रहती। नक्सलियों का स्वर्णयुग भी समाप्ति की ओर है। वर्तमान बस्तर नक्सलियों के लिए किसी लाक्षागृह से कम नहीं। ऐसा पहली बार हो रहा है जब एक तरफ जनता नक्सलियों को नकार रही है और दूसरी तरफ सुरक्षा बल उन्हें मार रहे हैं।
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समाज हो या देश, शांति और विकास का प्रस्फुटन लोकतान्त्रिक ढांचे में ही संभव है। बस्तर के आदिवासी ने सदा अपने मताधिकार का प्रयोग किया, हालाँकि उसके एवज में उसे जो मिला वो गौण है। पिछले तीन महीनों में सरकार और सुरक्षा तंत्र ने जिस तरह नक्सलियों को बस्तर के जंगलों से उठा कर इतिहास की पुस्तकों की कुछ लाइनों में दुस्वपन के रूप में समेत दिया उससे आदिवासी उत्साहित हैं। आम चुनाव 2024 के प्रथम चरण में बस्तर ने उसी उत्साह का प्रदर्शन कर लोकतंत्र पर अपना फिर से भरोसा जताया है। अब विकास को धरातल पर उतारने की जिम्मेदारी सरकार की है।

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