प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली पांच जजों की पीठ ने कहा था कि जनता चाहती है कि दागी छवि वाले लोगों को चुनाव लडऩे से रोका जाए। विधायिका को जनता की आवाज सुननी चाहिए। पीठ ने कहा था, देश की राजनीतिक प्रणाली का अपराधीकरण नहीं होने देना चाहिए। मगर, कानून बनाना हमारा काम नहीं। यह संसद का काम है। ऐसे में कोर्ट को लक्ष्मण रेखा पार नहीं करनी चाहिए और न ही संसद के कानून बनाने वाले अधिकारों में दखल देना चाहिए।
केंद्र की ओर से पेश अटॉर्नी- जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा था कि मामला संसद के विशेषाधिकार के तहत है। आरोपी को तब तक दोषी नहीं कह सकते, जब तक उस पर आरोप तय न हो जाएं। मामले की सुनवाई संविधान बेंच में चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस आरएफ नरीमन, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा शामिल हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने मार्च 2016 में यह मामला पांच जजों की संविधान पीठ को सौंपा था। मामले में 2011 में याचिकाएं दाखिल की गई थीं। इनमें भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय के अलावा पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह और एक अन्य एनजीओ की भी याचिकाएं हैं। इनमें कहा गया है कि इस समय देश में 34 फीसदी नेता ऐसे हैं जिन पर गंभीर अपराध में कोर्ट आरोप तय कर चुका है। याचिका में कहा गया है कि चुनाव लडऩे से संबंधित कानून यानि जनप्रतिनिधि कानून की धारा आठ में संशोधन होना चाहिए। यह धारा उम्मीदवार को चुनाव लडऩे से अयोग्य ठहराने के लिए है।
याचिका में मांग की गई है कि गंभीर अपराधों में कोर्ट में आरोप तय होने पर आरोपी को चुनाव लड़ऩे से रोका जाए। इस मामले में गंभीर अपराध उसे माना गया है, जहां पांच साल या इससे ज्यादा सजा का प्रावधान हो। इस संदर्भ में कहा गया है कि चुनाव आयोग 1998, 2004 और 2016 में ऐसी सिफारिश कर चुका है। विधि आयोग की 244वीं रिपोर्ट में भी ऐसी ही सिफारिश की गई है। याचिका में ये भी कहा गया है कि कई विशेषज्ञ समितियां जिसमें गोस्वामी समिति, वोहरा समिति, कृष्णामचारी समिति, इंद्रजीत गुप्ता समिति, जस्टिस जीवन रेड्डी कमीशन, जस्टिस वेंकेटचलैया आयोग भी राजनीति के अपराधीकरण पर चिंता जता चुके हैं, लेकिन सरकार ने आज तक उनकी सिफारिशें लागू नहीं कीं।