जब गम में बदली खुशी…
गांव वालों का एकादशी को दशहरा बनाने की वजह बड़ी पुरानी है जिसका ग्रामीण आज भी मानते आ रहे हैं। करीब 50 वर्षों से झांकियों में मुख्य सेवादार की भूमिका निभा रहे दरबारा सिंह ने बताया कि 157 वर्ष पहले गांव में दशमी के दिन ही रावण दहन होता था। वर्ष 1861 में गांव में करीब 100 परिवार ही रहते थे। सभी लोग पशु पालक थे। उस समय 400 पशुओं के झुंड को खेतों में चरने के लिए छोड़ दिया था। इधर, गांव में दशहरे की तैयारियां चल रही थीं। शाम को रावण दहन होना था। दरबारा सिंह ने बताया कि शाम तक एक भी पशु गांव नहीं लौटा तो खुशी का माहौल गम में बदल गया। उस दिन गांववासियों ने रावण दहन नहीं किया। अगले दिन सभी पशु गांव में लौट आए तो फिर गांववासियों ने एकादशी पर रावण दहन करके खुशी मनाई। उसी दिन से यह परंपरा चलती आ रही है।
इतिहास याद रखने को बनाया कुंभकर्ण का बुत
गांव में जिस जगह पर रावण दहन होता है, वहां चौक पर कुंभकर्ण का सीमेंट से बहुत बड़ा बुत बना हुआ है। बताया जाता है कि यह बुत 157 वर्ष पहले बनाया गया था। इसको बनाने का मकसद गांव के इतिहास को सदैव लोगों के समक्ष रखना है और लोगों को बुराई के प्रति जागरूक करना है।
प्रदूषण फ्री दशहरा मनाने का अनोखा तरीका
गांव में बेहद कम खर्च में प्रदूषण मुक्त दशहरा करीब 133 वर्षों से मनाया जा रहा है। पक्के तौर पर लोहे का रावण तैयार किया हुआ है। उसके सिर के ऊपर मात्र रंग-बिरंगे कागजों की टोपी बनाकर बीच में एक बड़ा पटाखा लगाया जाता है। एकादशी के दिन श्री राम तीर चलाकर दहन करते हैं। दहन में रावण के सिर पर कागजों की टोपी जल जाती है। यह केवल रस्म अदा करने के लिए किया जाता है। हर वर्ष रावण को तैयार करने से लेकर दहन तक मात्र एक हजार रुपये का खर्च आता है।
तीन पीढ़ियों से निकाल रहे झाकियां
रावण का पुतला तैयार करने और झांकियां निकालने में गांव के ही एक परिवार की चौथी पीढ़ी नि:शुल्क सेवा में लगी है। इन दिनों सेवा संभाल रहे 55 वर्षीय रमेश कुमार ने बताया कि उनके दादा भगत पूर्ण चंद लकड़ी के मिस्त्री थे। शादी के बाद उनके औलाद नहीं हुई थी तो एक विद्वान ने उन्हें गांव में झांकियां निकालने और रावण का पुतला बनाने की सेवा करने को कहा था। उनके दादा ने गांव में झाकियां निकालने की शुरूआत की। साथ ही, रावण के पुतले की सेवा शुरू की। कुछ समय बाद ही उनके पिता फकीर चंद का जन्म हुआ। दादा के बाद उनके पिता ने इसी सेवा को जारी रखा। अब उनके दोनों बेटे यह सेवा करने लगे हैं।