सिर्फ तीन जातियों से मतलब भी छलावा
उप्र में दलित और ओबीसी की कुल 142 जातियां सरकारी रिकॉर्ड में अधिसूचित हैं। इनमें अन्य पिछड़ा वर्ग में 76 जातियां और अनुसूचित जाति में कुल 66 जातियां शामिल हैं। मायावती जानती है कि बसपा से अब तमाम दलित जातियों का मोहभंग हो रहा है। इसलिए मायावती अब जाटव, ब्राह्मण और मुस्लिम पर फोकस कर रही हैं। वे ओबीसी की सबसे ताकतवर जाति यादव में फूट डालना चाहती हैं। लेकिन, वंचितों की अन्य जातियों का नाम नहीं ले रहीं हैं। उनकी नजर एक बार फिर सोशल इंजीनियरिंग पर है। दलित,ब्राह्मण और मुसलमान उनके एजेंडे में सबसे ऊपर हैं। वह कह रही हैं यादव सपा से छिटक गए हैं। मुसलमानों का सपा से मोहभंग हो गया है। तो इसके पीछे बड़ी रणनीति है।
अब तक कभी मध्यावधि चुनाव न लडऩे वाली बसपा उप्र की 12 सीटों पर अकेले उपचुनाव लड़ेगी। मायावती का कहना है कि यादवों का वोट बसपा को पूरी तरह ट्रांसफर नहीं हुआ, जिससे बसपा को नुकसान हुआ। मायावती इस बयान से यह संदेश देना चाहती हैं कि यादव वोट पर अब सपा का ही एकाधिकार नहीं है। वह कई दलों में बंट गया है। यानी अखिलेश की नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठाकर वह संदेश देना चाहती हैं कि यादवों का हित बसपा में सुरक्षित है।
मुस्लिम वोटर्स को संदेश-मजबूत सपा के मुकाबले बसपा मजबूत
2014 के लोकसभा चुनाव में सपा और कांग्रेस को कुल 66 प्रतिशत मुस्लिमों का मत मिला। जबकि बसपा को 21 प्रतिशत मुस्लिम मत मिले। 2019 में सपा को सिर्फ 5 और बसपा को 10 सीटें मिलने पर मायावती ने मुसलमानों में यह संदेश देने की कोशिश की भाजपा को हराने में बसपा ही सक्षम है न कि सपा। इसी तरह यादवों को भडक़ाकर यह संदेश देने की कोशिश की गयी कि अखिलेश और उनकी सपा में उनका भविष्य सुरक्षित नहीं है।
अजा की कोरी जाति के रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाकर भाजपा ने उप्र समेत देश की अन्य कोरी जातियों को पार्टी से जोडऩे का काम किया है। पासवान और खटिक जैसी जातियां भी भाजपा से जुड़ी हैं। संघ भी अनुसूचित जातियों के बीच काम कर रहा है। वह भी अप्रत्यक्ष रूप से दलितों में हिंदुत्व की धार तो तेज कर रहा है। इस तरह उप्र की अनुसूचित जाति की 20.7 प्रतिशत आबादी में से कई जातियां अब बसपा के साथ नहीं हैं। ऐसे में मायावती को नयी जातियों की तलाश है। गठबंधन में बने रहकर यह संभव नहीं था।
बसपा की नींव कमजोर कर रही भाजपा
भाजपा की नजर उप्र में अन्य पिछड़ा वर्ग पर भी है। यादव और कुर्मी के बाद कोइरी,निषाद, गड़ेरिया, राजभर जैसी जातियों जो अभी भाजपा से दूर हैं उन्हें भी अपने पाले में लाने की कवायद में जुटी है। कभी यह जातियां बसपा का कोर वोटबैंक हुआ करती थीं। भाजपा आहिस्ता-आहिस्ता बसपा के पैर के नीचे से जमीन खींच रही है।
जातीय राजनीति भी नहीं दिला पायी सत्ता
बसपा पिछले 35 सालों से जातीय राजनीति कर रही है। लेकिन सिर्फ एक बार 2007 में वह अपने दम पर यूपी में सरकार बना पायी। इसके बाद से उसका ग्राफ गिरा ही है। 2009 में बसपा के 20 सांसद जीते थे लेकिन मत प्रतिशत घटकर 27.42 प्रतिशत रह गया था। वर्ष 2014 में बसपा का खाता नहीं खुला। जबकि, गठबंधन से उसे फायदा ही हुआ।
यादवों का वोट न मिलने की बात गलत
हालांकि मायावती का यह बयान गलत है कि गठबंधन में बसपा को यादवों के मत नहीं मिले। सचाई यह है कि गठबंधन की वजह से ही बसपा जीरो से 10 पर पहुंची। गाजीपुर, अंबेडकर नगर, लालगंज, घोसी, जौनपुर और श्रावस्ती आदि यादव बहुल सीटें हैं। यहां यादवों ने बसपा को वोट किया। इसके अलावा जिन दस लोकसभा सीटों पर बसपा जीती वहां उसे 40 से 56 प्रतिशत तक वोट मिले। यानी गठबंधन की 15 सीटों पर एक दूसरे के वोट ट्रांसफर हुए हैं।