शुक्राचार ने दिया था वरदान
देवयानी सरोवर में पिंड दान करवाने वाले आचार्य रघुवीर मुनि ने बताया कि महाभारत काल के दौरान दैत्य गुरू शुक्राचार अपनी बेटी देवयानी को मित्र राजा वृषपर्वा की बेटी शर्मिष्ठा के साथ मूसानगर घूमने के लिए आए थे। इसी दौरान जाजमऊ के राजा यायाति वहां से गुजर रहे थे, तभी एक युवती की अवाज कुएं के अंदर से सुनाई पड़ी। राजा यायाति ने युवती को बाहर निकाला और पूछने पर उसने अपना नाम देवयानी बताया। इसी बीच दोनों के बीच प्यार हो गया। दोनों ने विवाह कर लिया। इतिहासकार कपूर बताते हैं कि, राजा ययाति अपनी प्रेम की निशानी को जीवित रखने के लिए पत्नी देवयानी के नाम से मूसानगर में सरोवर का निर्माण करवाया। जो आज भी यहां पर मौजूद है। शुक्राचार्य ने खुश होकर कहा था कि जब तक धरती रहेगी तब तक यह सरोवर रहेगा और लोग अपने पूर्वजों का पिंडदान करने के लिए यहां आएंगे। मूसानगर में स्थित देवयानी सरोवर में पितृपक्ष के दौरान सैकड़ों लोग आते हैं और अपने पूर्वजों का पिंडदान करते हैं।
छोटी गया के नाम से प्रसिद्ध है सरोवर
देवयानी सरोवर को मातृ गया का दर्जा प्राप्त है। यहां प्रथम पिंडदान का विशेष महत्व है। यहां के पुजारी ने बताया कियहां पितरों का श्राद्ध किए बगैर गया में श्राद्ध का फल पूरा नहीं होता है। देवयानी सरोवर से दो किमी दक्षिण में यमुना नदी है, जो उत्तरगामिनी है। इस वजह से यहां पर पिंड दान का अलग महत्व माना जाता है। पितृपक्ष में बड़ी संख्या में लोग पितरों को पिंडदान करने के लिए आते हैं। आचार्य राकेश मुनि कहते हैं कि देवयानी सरोवर में पिंड दान की परंपरा काफी प्राचीन है। यहां आसपास के जनपद ही नहीं पड़ोसी प्रांतों से भी लोग गया या बद्रीनाथ जाने से पहले पितृ पक्ष में पिंड दान के लिए आते हैं। बताते हैं कि पितृपक्ष के नजदीक आते ही यहां पिंडदान की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। प्रति दिन यहां पिंड दान के लिए लोगों को तांता लगा रहता है।
राजा यायाति ने करवाया था निर्माण
देवयानी सरोवर पर पिंड दान करवाने वाले आचार्य ने बताया कि ययाति, चन्द्रवंशी वंश के राजा नहुष के छः पुत्रों याति, ययाति, सयाति, अयाति, वियाति तथा कृति में से एक थे। ययाति का विवाह शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी के साथ हुआ और उन्होंने अपनी प्रमिका के नाम से इस सरोवर का निमर्णण कराया था। आचार्य रघुवीर मुनि बताते हैं किसी वस्तु के गोल रूप को पिंड कहते हैं, जो शरीर का प्रतीकात्मक माना जाता है। जौ या फिर चावल के आंटे में गाय के दूध, घी, शक्कर एवं शहद को मिलाकर पिंड बनाया जाता है। इसे दक्षिणाभिमुख होकर, आचमन कर अपने जनेऊ को दायीं ओर कंधे पर रखकर श्रद्धा भाव से पितरों को अर्पित करना ही पिंडदान कहा जाता है। जल में जौ, काला तिल, कुश और सफेद फूल मिलकार विधिपूर्वक तर्पण करते हैं। ऐसा माना जाता है इस कर्म से पितर तृप्त होते हैं। इसके कर्म के बाद ब्राह्म्ण भोज कराया जाता है।