कुछ इस तरह से गमों को भुलाते हैं
पनकी थाना अंतर्गत बाराशिरोही गड्डियन पुरवा में मौजूद वृद्धा आश्रम में वृद्धाएं रहती हैं।, जिन्हें उनके कपूतों ने ठुकरा दिया। फुटपाथ व रेलवे स्टैंड पर रात गुजारी, बीमार पड़े तो हैलट पहुंचाए गए। टीक होते ही उन्हें आश्रृम भेज दिया गया और दिवाली से लेकर होली सभी वृद्ध आपस में मिलकर मनाते हैं। पिछले छह सालों से आश्रृम में रह रही परिमा (77) ने बताया कि भले ही हमसब एक परिवार से नहीं है, लेकिन आश्रम में सभी लोग एक परिवार की तरह रहते हैं। सभी अलग-अलग जगहों से आए हैं। सबका डिफरेंट प्रोफेशन है, कोई प्रोफेसर है तो कोई अकाउंट, इसके बावजूद भी हम सब एक हैं। उम्र के इस पड़ाव में भी त्योहार को अपने अंदाज में सेलिब्रेट करते है। धनतेरस से दीपावली तक सभी लोग यहां बने मंदिर में भजन गाकर अपनों की खुशियों की कामना करते हैं। इसके साथ ही फुलझड़ी जलाकर अपने ग़मों को भुलाते हैं।
त्योहरों पर जगती है आस
आश्रृम में पिछले पांच सालों से रह रही कल्याणपुर निवासी कमलादेवी ने बताया कि जब बेटे की उम्र आठ साल की थी तब पति की मौत हो गई। मैंने बेटे को खून-पसीना बहा कर बड़ा किया। ख्ुद भूखे पेट सोई पर बेटे को भरपेट भोजन कराया। बेटा इंजीनियर बन गया और उसे नौकरी मिल गई। तभी उसने एक लड़की से प्रेम विवाह कर लिया। शादी के बाद वो एकबार मुझसे मिलने आया। बोला, ये घर बेंचकर आपको मुम्बई लेकर जाना है। बेटे के बहकावे में मैं आ गई। पति के घर को बेंच दिया। बेटे मुझे लेकर रेलवे स्टेशन गया, पर प्लेटफार्म में छोड़कर मुम्बई अकेले निकल गया। घर गया और रहने का ठिकाना चला गया। कईदिनों तक सेंट्रल स्टेशन में समय गुजारा और बीमार पड़ गई। होश आया तो इस आश्रृम में अपने को पाया। फिर भी हर साल दिवाली व होली पर आस रहती है कि बेटा आएगा और मुझे ले जाएगा।
अपनों ने अपने ही घर से निकाला
किदवईनगर आश्रृम में रह रहे, जेल अधीक्षकों, जेलरों, बेलगाम बंदियों के मैनेजमेंड का फंडा सिखाने वाले आजाद नगर निवासी केपी टंडन ने बताया कि ं दो साल पहले उनके इकलौते बेटे अजय ने अपने ही घर से बेघर कर दिया था। वह इसी आश्रम में दीपावली और ईद अन्य 55 बुजुर्गों के साथ मनाते हैं और कभी अपने को कोसते तो कभी उन्हें दुआ भी देते नहीं थकते। यहां कोई डिप्रेशन में है तो कोई बीमारी से जूझ रहा है। कहने को तो बेटे और बेटी हर साल लाखों कमा रहे हैं, लेकिन जिन्दगी के आखरी पड़ाव में बच्चों की सफलता उनके हिस्से में नहीं है। तभी कोई भी व्यक्ति इनसे प्यार से बोल देता है तो पूरी जिन्दगी का सफर कुछ देर पर बता देना चाहते हैं। दिवाली पर इन बुजुर्गों को इंतजार है कि शायद कोई अपना उनके साथ खुशियां मनाने आ जाए। आश्रम की प्रभारी ज्योति पांडेय ने बताया कि इन सभी बुजुर्गों को अपनों ने सताया, बावजूद वह कभी उनकी बुराई नहीं करते।
बेटा-बेटी को बदलनी होगी सोंच
आश्रम की स्थापना करने वाली मंजू भाटिया ने बताया कि 25 साल पहले पति की मौत के बाद से बेसहारा महिलाओं और पुरुषो की सेवा में जुटी हुई हैं। बेटा और बेटी दोनों ही इनके समाजसेवा के काम को सपोर्ट करते हैं। उन्होंने बताया कि इस आश्रम में कोई 5 महिने से तो कोई 10 साल से रह रहा है। मंजू कहती हैं कि जिन माता-पिता ने उन्हें पढ़ाकर काबिल बनाया, वो ही उन्हें छोड़कर आराम की जिंदगी जी रहे हैं। हमें अपनी सोंच को बदलनी होगी। हम भी कभी बुजुर्ग होंगे। यदि हर बेटा व बेटी ये सोंचे तो बुजुर्गो के लिए आश्रृम की आवश्यकता नहीं पड़ सकती। वहीं रमेश बाबू ने बताया कि हम आश्रम में साथ मिलाकर ढोलक बजाकर भजन गाते हुए दीपावली पर्व बड़ी धूम धाम से मनाते हैं ।इसके साथ ही मिठाई और गिफ्ट्स एक दूसरों को देते हैं। फुलझड़ी के धुए में अपने ग़मों को भूलते हुए खुशियां मानते है।