चंबल के ऊबड़-खाबड़ टीले, घनी कटीली झाडियां और बल खाती नदी के सुरम्य वातावरण में कभी दहशत का साम्राज्य था। खूंखार डाकुओं की यहां बादशाहत थी। उन्हीं के आदेश पर प्रधान चुने जाते थे। वे विधानसभा और लोकसभा चुनावों में अपने समर्थक उम्मीदवारों के पक्ष में मतदान का फरमान जारी करते थे। 1996 के लोकसभा चुनाव में इसी तरह का फरमान फक्कड़ बाबा और कुसमा नाइन ने जारी किया था। दोनों ने औरैया जिले में अपने उम्मीदवार के पक्ष में वोट करने का हुक्म सुनाया। इसके बाद यहां के असेवा गांव निवासी संतोष और उसके चचेरे भाई राजकुमार ने हुक्म की तालीमी नहीं की। इससे गुस्साई कुसमा नाइन ने संतोष और राजकुमार की आंखें निकाल लीं थीं।
तब नहीं डरे थे संतोष और राजकुमार
ग्रामीण बताते हैं कि फक्कड़ और कुसमा के आदेश के बावजूद संतोष और राजकुमार ने गांव वालों को बेहतर प्रत्याशी को जिताने की अपील की थी। इसके बाद उन दोनों को अपनी आंख गवांनी पड़ी। हालांकि इसके बाद भी दोनों ग्रामीण ढोलक और मंजीरा बजा बजाकर हर चुनाव में गांव-गांव में बिना भय के योग्य उम्मीदवार को वोट देने की अपील करते थे। संतोष बताते हैं कि 1998 के पंचायत चुनाव में फक्कड़ ने फिर फरमान सुनाया और धमकाया था। फिर भी वोट की चोट की ताकत को समझते हुए ग्रामीणों ने डकैत के उम्मीदवारों के बजाए अपने पंसदीदा सरपंचों को ही चुना। हालांकि इसके बाद दोनों को मारने की धमकी मिली थी।
पत्नी व भाई की हत्या
संतोष बताते हैं कि डकैतों के विरोध की कीमत उन्हें चुकानी पड़ी। उनकी पत्नी श्रीवस्ती जब मंदिर में पूजा कर रही थी तभी फक्कड़ और कुसुमा नाइन की गैंग ने गांव में धावा बोल दिया। उसी वक्त पत्नी और भाई की गोली मारकर हत्या कर दी। बाद में सरकार सख्त हुई तब कई डकैत पुलिस एनकाउंटर मारे गए। फक्कड़ और कुसुमा नाइन ने सरेंडर कर दिया। अब जंगल शांत है।
ग्रामीणों ने बयां की दास्तां
यमुना बेल्ट के पिचैर गांव निवासी भरत सिंह बताते हैं कि फक्कड़ और कुसुमा नाइक के सरेंडर करने के बाद निर्भय गूर्जर सहित कई डकैतों ने बीहड़ और चंबल में कब्जा जमाया और सफेदपोशों के समर्थन से जुल्म ढहाते रहे। लेकिन, निर्भय के मारे जाने के बाद 2007 के बाद से सभी चुनाव बिना भय के हुए। कमलपुर के रामबाबू बताते हैं डकैत चुनाव के वक्त गांव में आते थे और बंदूक पर पंसदीदा पार्टी के झंडे लगाकर गांवों में घूमकर संकेत देते थे कि वोट किसे देना है।