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लोहिया के गढ़ में रोचक होगा समाजवादियों के बीच मुकाबला

locationकानपुरPublished: Mar 20, 2019 02:06:15 am

Submitted by:

Vinod Nigam

यादव परिवार की इस सीट पर बोलता था डंगा, पहली बार एक-दूसरे के सामने होंगे समाजवादी पार्टी के दो यो़द्धा, लोहिया के गढ़ में होगी जबरदस्त सियायी जंग।

akhilesh yadav declared candidate on dimple in kannauj lok sabha seat

लोहिया के गढ़ में रोचक होगा समाजवादियों के बीच मुकाबला

कानपुर। आगामी लोकसभा चुनाव को ’महायुद्ध मानकर बैरी बसपा को भी गले लगा चुके अखिलेश यादव के लिए मुलायम के गढ़ कन्नौज में कब्जे के खास जोर लगाना पड़ सकता है। क्योंकि 2014 में उनके साथ शिवपाल यादव थे, पर 2019 में उन्होंने खुद प्रसपा का गठन कर भतीजे को चुनावी अखाड़े में चित करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाए हुए हैं। यही वजह है कि पिछले चुनावों में मोदी लहर के अप्रत्याशित परिणाम देख चुके सपा के युवा मुखिया ने अपने लिए लोहिया के ’बंकर को ठिकाना बना खुद के बजाए पत्नी डिम्पल यादव को चुनावी अखाड़े में उतारा है।

जयचंद की नगरी में रोचक मुकाबला
हर्षवर्धन और राजा जयचंद की नगरी कभी उत्तर भारत की राजधानी रहा कन्नौज आजकल उत्तर प्रदेश की सियासत का केंद्र बिंदु है। 1952 के पहले चुनाव में कन्नौज लोकसभा सीट पर कांग्रेस के उम्मीदवार शंभूनाथ मिश्रा पहले एमपी बने थे। 15 सालों तक कांग्रेस की तूती बोलती रही, लेकिन डाॅक्टर राम मनोहर लोहिया ने 1967 में कांग्रेसी सांसद शंभूनाथ को हराकर सांसद बनने का गौरव हासिल किया। 1998 के बाद ये सपा का अभेद्य किला बन गया। मुलायम से लेकर अखिलेश यादव यहां से सांसद चुने गए। फिर डिम्पल यादव पीएम मोदी की लहर को मात देकर चुनाव जाीता।

डिप्पल को फिर दिया टिकट
लोकसभा चुनाव (2019) को देखते हुए उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने कन्नौज सीट से डिम्पल यादव को चुनाव में उतार दिया है। इसी के बाद से भाजपा और प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के पदाधिकारी एक्शन में आए। शिवपाल यादव जिय तरह से फिरोजबाद सीट से भतीजे के खिलाफ चुनाव मे उतरनें का ऐलान किया है, उसी तरह वो कन्नौज सीट से बेटे आदित्य यादव य मुस्लिम चेहरे पर दंाव लगा सकते हैं। कानपुर प्रसपा के प्रभारी रघुराज शाक्य ने कहा कि अब पीछे हटने का सवाल नहीं। शिवपाल यादव सच्चे समाजवादी हैं और कन्नौज से अखिलेश उनके चलते चुनाव जीते। यदि पार्टी आदित्य यादव को चुनाव में उतारती है तो उन्हें जिताकर संसद भेजा जाएगा।

कमजोर हुई दिवार
हालांकि परिस्थितियां बदल चुकी हैं। बेशक, यह यादव परिवार के लिए पुरानी मजबूत जमीन रही है लेकिन, इस पर बने उनके ’सुरक्षित घर की दीवारें अब कमजोर हो चुकी हैं। आशंका के निशान पिछले चुनाव परिणामों ने छोड़े हैं। 2014 का चुनाव डिंपल यादव महज 19907 वोट से ही जीत पाई थीं। विधानसभा चुनाव में पांच में से चार सीटें भाजपा की झोली में गईं और सपा एक पर सिमट गई। फिर नगर निकाय चुनाव में भी प्रदर्शन निराशाजनक ही रहा। जबकि समाजवादी विचारधारा के दूसरे नेता शिवपाल अब पार्टी छोड़ चुके हैं और यहां से तगड़ा उम्मीदवार उतारे जाने का ऐलान भी कर चुके हैं। ऐसे में सपा मुखिया अखिलेश को अतिरिक्त मेहनत की जरूरत होगी।

जातिगत आंकड़े
अभी तक तय रणनीति के मुताबिक, लोकसभा चुनाव सपा और बसपा मिलकर लड़ेंगी। इस लिहाज से देखें तो जातीय समीकरण और बसपा का साथ अखिलेश को जीत की उम्मीदें पालने का भरपूर हौसला दे सकता है। पिछले कई चुनावों से बसपा यहां मजबूती से लड़ती रही है। इस लोकसभा क्षेत्र में 16 फीसद यादव, 36 फीसद मुस्लिम, 15 फीसद ब्राह्मण, 10 फीसद राजपूत तो बड़ी तादाद में लोधी, कुशवाहा, पटेल, बघेल जाति का वोट है। यादव के साथ अन्य पिछड़ों को अपने पाले में खींचने में यदि सपा सफल रही तो बसपा के साथ होने से मुस्लिम मतों के बिखराव की आशंकाएं भी हवा हो जाती हैं।

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