परिस्थिति के अनुसार ही प्रथा में बदलाव संभव है लता कहती हैं हमारे जिले में तीर कमान की प्रथा ऐसी थी कि 10-11 वर्ष के बाद लड़कियों पर हर तरह की बंदिशें लगा दी जाती थीं। इसके चलते अधिकतर लड़कियां एनीमिया से ग्रसित हो जाती थीं। कमजोर इतनी होती थीं कि शादी के बाद कम उम्र में दम तोड़ देती थीं। इसके लिए मैंने लड़ाई लड़ी। अब इसमें सुधार हुआ है। समाज के लोगों से बात की तो उन्होंने लड़कियों को 12वीं तक पढ़ने की छूट मिल गई। अब लड़कियां पढ़ाई के साथ कहीं आने-जाने वाले काम भी करती हैं। साथ में संस्थागत प्रसव भी होने लगा है। वे कहती हैं कि परिस्थिति के अनुसार प्रथा में बदलाव करते हैं तो लोग स्वीकार करते हैं।
छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले के पांच में से तीन ब्लॉक (छूरा, मैनपुर और गरियाबंद) आदिवासी बाहुल्य हैं। इन जिलों में गुंजियां और कमार जनजातियाें के हजारों परिवार रहते हैं। इन परिवार की बच्चियाें का विकास इनके पुराने रीति-रिवाज और प्रथाओं के चलते रुका था। वे पांचवीं से अधिक पढ़ाई नहीं कर पा पाती थीं क्योंकि माहवारी से पहले उनकी शादी तीर-कमान के साथ कर दी जाती थी। इसके बाद से उन लड़कियों को गांव से बाहर जाना, घर के अलावा दूसरे पुरुषों के स्पर्श होने, बाहर का खाना-पीना, चप्पल और ब्लॉउज पहनने पर पाबंदी लग जाती थी। यहां तक कि प्राइमरी में पढ़ने वाली बच्चियों को मिड मील तक खाने पर पाबंदी लग जाती थी।
जाति समाज के मुखियाओं को तैयार करना चुनौतीपूर्ण वे कहती हैं कि आदिवासी जाति पंचायत में आज भी राजा या मुखिया होते हैं। मैं हर जाति के प्र्रमुख से मिली। उनको तैयार करना मुश्किल काम था। शुरू में कुछ धमकाते भी थे। कई-कई बार उनसे मिली। उनको उदाहरणों से समझाना पड़ता था। उन्हें जागरूक किया। तब जाकर पिछले कुछ वर्षों से 12वीं तक की शिक्षा के लिए लड़कियों को अनुमति मिली है। तीर कमान से शादी के बाद अब लड़कियां घर से बाहर जा सकती हैं, बाहर का खा सकती हैं, चप्पल और ब्लाउज पहन सकती हैं। लेकिन जब वे घर में घुसती हैं तो पहले उन्हें दूध और जल से शुद्ध किया जाता है। अब वे रोजगार और नौकरी से भी जुड़ रही हैं।
खेल के जरिए दूर कराती हैं स्त्री-पुरुष का भेद लता कहती हैं कि सामान्य लोगों की तुलना में आदिवासियों में पुरुष-महिला का भेद आज भी ज्यादा है। लेकिन कुछ जागरूक पुरुषों की मदद से हर वर्ष मेलों और सामाजिक आयोजनों में कुछ खेलों का आयोजन करवाती हूं। ऐसे गेम्स का आयोजन करवाती हूं जो केवल एक वर्ग को प्रदर्शित करते हैं। जैसे कबड्डी पुरुषों का खेल है जबकि पानी भरने का काम महिलाएं करती हैं। ऐसे में महिलाओं को कबड्डी खिलाती हूं जबकि पुरुषों से पानी का घड़ा लेकर दौड़ लगवाती हूं। इससे भी बदलाव देखने को मिल रहा है। पुरुष, अब घर में भी महिलाओं की मदद करते हैं। महिलाओं की सामाजिक भागीदारी भी बढ़ रही है।