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जयपुर

बंगाल का ‘जादू’

पूर्वोत्तर राज्यों की सरकारों में यह प्रवृत्ति देखने में आती है कि ये अधिकांशतः केन्द्र सरकार के साथ रहती आई है। इसका मुख्य कारण केन्द्र से मिलने वाली ग्रांट है जो स्थानीय विकास का प्रमुख आधार बनती रही है। इस बार भी पूर्वोत्तर राज्यों और त्रिपुरा में तस्वीर कमोबेश ऐसी ही है। पूर्व और पूर्वोत्तर को मिलाएं तो वहां लोकसभा की 67 सीटें हैं। इनमें पश्चिम बंगाल में 42, असम में 14, पूर्वोत्तर में 10 व सिक्किम की एक सीट शामिल है।

जयपुरApr 10, 2024 / 10:54 am

Gulab Kothari

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गुलाब कोठारी
पूर्वोत्तर राज्यों की सरकारों में यह प्रवृत्ति देखने में आती है कि ये अधिकांशतः केन्द्र सरकार के साथ रहती आई है। इसका मुख्य कारण केन्द्र से मिलने वाली ग्रांट है जो स्थानीय विकास का प्रमुख आधार बनती रही है। इस बार भी पूर्वोत्तर राज्यों और त्रिपुरा में तस्वीर कमोबेश ऐसी ही है। पूर्व और पूर्वोत्तर को मिलाएं तो वहां लोकसभा की 67 सीटें हैं। इनमें पश्चिम बंगाल में 42, असम में 14, पूर्वोत्तर में 10 व सिक्किम की एक सीट शामिल है।

पिछले चुनावों में असम की 14 में से 9 सीटों पर भाजपा, तीन पर काग्रेस, एक पर एडीएफ व एक पर निर्दलीय का कब्जा रहा। असम की 14 लोकसभा सीटों पर भाजपा और कांग्रेस गठबंधनों के बीच कड़ा मुकाबला होने जा रहा है। पूर्वोत्तर में भाजपा ने सहयोगियों के साथ एक फ्रंट बना रखा है। वहीं पश्चिम बंगाल में भी कई सीटें कांटे के मुकाबले में फंसी है।

राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा का कोई प्रभाव न तो असम में दिखाई दिया और न ही पश्चिम बंगाल में। पश्चिम बंगाल एक नए मुखौटे में चुनाव लड़ रहा है, ऐसी चर्चा जोरों पर है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी की पिछले दिनों एक कार्यक्रम के मंच पर हुई मुलाकात को इससे जोड़ा जा रहा है। हालात बदले-बदले नजर आ रहे हैं। चर्चा भाजपा व तृणमूल कांग्रेस के बीच अघोषित समझौते की खूब है। भाजपा को पैतीस सीटों के प्रस्ताव से बात बनती-बिगड़ती 25 तक जा पहुंची। चर्चा यह भी है कि बाद में जो तय हुआ उसमें 21-21 सीटों की सहमति बनी। यदि इन अंदरुनी खबरों में दम है तो परिणाम भी ऐसे ही आने से इनकार नहीं किया जा सकता। यह भी कहा जा रहा है कि इसीलिए तृणमूल ने भाजपा के सामने कई जगह कमजोर खिलाड़ी उतारे हैं। कई सीटों पर नए अनजान से चेहरे मैदान में है।

उदाहरण बैरकपुर का ही लें। वर्ष 2019 में अर्जुन सिंह यहां से भाजपा के प्रत्याशी थे। वे भाजपा छोड़कर तृणमूल कांग्रेस में आ गए थे। वहां से टिकट नहीं मिलने पर पुनः भाजपा से चुनाव लड़ रहे हैं। चर्चा यह भी है कि कृष्णानगर में तृणमूल ने महुआ मोइत्रा को टिकट देकर यह सीट भाजपा को परोस दी है। मोइत्रा का कड़ा विरोध था। बहरमपुर में लगभग 55 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता है। यहां से कांग्रेस के अधीर रंजन चौधरी चुने जाते रहे हैं। तृणमूल ने लोकप्रिय क्रिकेटर युसुफ पठान की मैदान में उतारा है ताकि कांग्रेस के वोट बंट जाएं। भाजपा को आशा बंच गई। उसने चिकित्सक डॉ. निर्मल कुमार साहा को टिकट दिया है जिनकी क्षेत्र के मुस्लिम वोटरों पर पकड़ बताई जाती है। बशीरहाट से संदेशखाली प्रकरण की पीड़िता रेखा पात्रा भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रही है।

पर्दे के पीछे बहुत कुछ
पश्चिम बंगाल में पहले कांग्रेस से वामदलों ने सत्ता छीनी थी और अब भाजपा के सामने सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस है। यहां वामदल और कांग्रेस दोनों ही हाशिए पर चले गए हैं। देश भर में महागठबंधन में शामिल कांग्रेस और वामदल, पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ रहे। हालत यह है कि प्रदेश में कांग्रेस का मतदाता है लेकिन संगठन कमजोर है। वामदलों के पास संगठन है लेकिन उसके मतदाता तृणमूल कांग्रेस के साथ चले गए। अतः मुकाबला मुख्य तौर पर तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के बीच ही होना है। यहां कांग्रेस सत्ता में थी तो वामदल का एक मजबूत विकल्प होता था। तृणमूल के सत्ता में आने पर कांग्रेस टूटती चली गई और भाजपा ने काग्रेस व वामदल दोनों को किनारे कर दिया।

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यह स्थिति कांग्रेस और वामदलों के लिए तो आगामी विधानसभा चुनाव में भी आत्मघाती रहने वाली है। इससे उबरने के लिए दोनों दल 20-20 की तर्ज पर तीसरा मोर्चा बनाकर कूदने का मानस बना चुके हैं। अपनी खोई शक्ति को पुनर्जीवित कर विधानसभा चुनाव में निखार लाना चाहते हैं। तब यह तालमेल दोनों मुख्य दलों तृणमूल कांग्रेस व भाजपा के समीकरणों को अवश्य प्रभावित करेगा।

पश्चिम बंगाल पर अपनी पकड़ बनाए रखने की प्राथमिकता के कारण ममता ने भाजपा के साथ कूटनीतिक समझौता किया प्रतीत होता है। भाग्य ने साथ दिया और विचारपूर्वक कार्य हुआ तो यह समझौता भाजपा की लाटरी खोल सकता है। भाजपा पच्चीस सीटों का अंक पार कर सकती है। ममता के भतीजे अभिषेक अन्य कारणों से भाजपा के संपर्क में चल रहे हैं। ऐसे हालात में ममता बनर्जी का कार्यकाल पूरा होना भी दूभर हो जाएगा। साथ ही तीन टर्म की एंटी इन्कमबॅसी तो है ही।

बात यदि पूर्वोत्तर की करें तो इस क्षेत्र का विशेष मुद्दा नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) है। इस कानून को स्थानीय संस्कृति के विपरीत बताते हुए कुछ स्थानीय संगठन आंदोलन भी कर चुके हैं। विपक्षी दल भी इसे हवा दे रहे हैं। भाजपा भी इस कानून का पक्ष लेकर दम ठोक रही है। वर्ष 2019 में जब यह कानून पास हुआ था तब भी राज्य में उग्र आंदोलन हुए थे, इसके बावजूद वर्ष 2021 के विधानसभा चुनाव में भाजपा सत्ता में लौटी।

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असम में परिसीमन के बाद पहला चुनाव हो रहा है। भाजपा के छह सांसद तथा पांच नए चेहरे मैदान में हैं। चार-पांच सीटें ही टक्कर में दिखाई दे रही है। यहां जोरहाट सीट पर देश भर की निगाह है जहां से असम के पूर्व मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के बेटे गौरव गोगोई कांग्रेस के उम्मीदवार हैं। यहां भाजपा 11 सीटों पर चुनाव लड़ रही है और उसने तीन सीटें अपने सहयोगियों के लिए छोड़ी हैं। भाजपा ने मेघालय की दोनों सीटें तुरा और शिलांग अपनी सहयोगी पार्टी एनपीपी को दी हैं। मिजो नेशनल फ्रंट पूर्वोत्तर में भाजपा का सहयोगी दल है, लेकिन मिजोरम की दोनों सीटों पर भाजपा और उसकी सहयोगी मिजो नेशनल फ्रंट मुख्य मुकाबले में आ गए हैं। सिक्किम में क्रांतिकारी मोर्चा भी पूर्वोत्तर में भाजपा का सहयोगी है, लेकिन यहां की एक सीट पर उसने भी भाजपा के खिलाफ उम्मीदवार खड़ा किया है।

मणिपुर की दो में से एक सीट पर भाजपा ने अपनी सहयोगी एनपीएफ को समर्थन दिया है, जबकि दूसरी सीट पर भाजपा खुद चुनाव लड़ रही है। मणिपुर में विपक्ष का आरोप है कि चुनाव लायक परिस्थितियां नहीं है। नागालैंड, अरुणाचल व त्रिपुरा की सीटों पर भी मुख्य मुकाबला भाजपानीत गठबंधन का कांग्रेसनीत गठबंधन से ही होने के आसार हैं। अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम में विधानसभा चुनाव भी साथ हो रहे हैं। खास बात यह है कि अरुणाचल प्रदेश की 60 में से आठ सीटों पर मुख्यमंत्री प्रेमा खांडू समेत अन्य भाजपा प्रत्याशी निर्विरोध चुन लिए गए हैं। कुल मिलाकर पूर्व और पूर्वोत्तर की इन सीटों पर होने जा रहे चुनाव में इस बार पर्दे के पीछे बहुत कुछ ऐसा चल रहा है जिसकी उम्मीद शायद किसी को नहीं रही होगी।

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