इस खेल ने मुझे नाम दिलाया
अशोक कुमार ने बताया कि इस राष्ट्रीय खेल के उस आखिरी गोल ने मुझे नाम दिलाया है। उस मैच के बाद मैं हीरो बन गया। हालांकि मेरे पिता मेजर ध्यानचंद और चाचा रूपसिंह के कारण मेरी पहचान तो थी। लेकिन पाकिस्तान के खिलाफ विजयी गोल दागते हुए भारत को पहली बार वर्ल्ड कप विजेता बनाया तो उसके बाद सब मुझे जानने लगे। अब एक बार फिर कल से शुरू हो रहे विश्वकप में भारतीय टीम के युवा खिलाड़ियों से मिलूंगा तो उन्हें जरूर कहुंंगा कि जीवन में ऐसे मौके कभी कभी ही आते है जब दुनियां के लिए मिसाल कायम कर सकते हो। मेरे लिए भी 43 साल पहले वह मौका नहीं आता तो मुझे आज कोई नहीं जानता। अब भारत के बाद एक फिर मौका है तो खिलाड़ियों को जाकर कहूंगा तो आपको वो खेल दिखाना है जो आपने सिखा है। हर मैच को चैलेंज ले। मनोस्थिति और नर्वस सिस्टम मजबूत रखे। हार रहे हो तो भी जीतना है। जीतना है तो लय बरकरार रखना है।
कप को रखा देखा तो अपने आप से कमिटमेंट किया
अशोक कुमार ने अपनी यादे ताजा करते हुए कहा कि जब 1975 में मलेशिया पहुंचा तो होटल के दरवाजे पर विश्वकप रखा देख कर अपने आप से कमिटमेंट किया कि इस बार इस कप को जीतना है। यह मौका है कुछ करने का तो। आखिरी समय तक बस वहीं दिमाग में था। 1973 में हम यह जीतते जीतते हार गए थे। वह भी ऐसे में जब 2 गोल से हम लीड में थे। लेकिन 1973 के सडन एक्स्ट्रा टाइम में भारत को मिला वह पेन्लटी कॉर्नर जो भारत से मिस कर दिया था वह मेरी आंखों में घूम रहा था। तो सोचा की 1973 जैसी गलती अब नहीं करनी है।
समय पूरे होता होता दागा आखिरी गोल
अशोक कुमार कहते है कि होटल में पहुंचने के साथ ही 1975 में मैंने खुद से वादा किया कि इस ट्रॉफी को यहां से लेकर जाना है। हमारी टीम ने फाइनल में पाकिस्तान के खिलाफ 1-1 से बराबरी पर चल रही थी। इसके बाद मेरे गोल से हमने मैच 2-1 से जीता। अंतिम क्षण में जैसे ही बॉल मेरे पास आई तो मैने विपक्ष के खिलाड़ियों को मात देते हुए एक गज की दूरी से विजय ने मुझे पास देते हुए बॉल को फिर से मेरी तरफ फेंका और मैने उस बॉल को फिलक कर गोल दाग दिया। अंपायर की विसल बजी और गोल भारत के पक्ष में गया। इसके बाद पाकिस्तान की टीम ने शिकायत भी कि समय पूरा हो चुका है लेकिन अंपायर ने गोल को हमारे पक्ष में दिया और हम मैच जीत गए।
यह टीम गेम है एकजुट होकर खेलों तो जीत निश्चित है
ध्यानचंद के गुरू बालासाहब एक बात कहा करते थे कि हॉकी टीम गेम है। कोई भी अकेला इस खेल को नहीं खेल सकता है। अब जो भारत की टीम खेल रही है उनसे यही कहना चाहूंगा कि हॉकी टीम गेम है एकजुट होकर खेलों तो जीत निश्चित है। एक दूसरे से कॉर्डिनेशन से खेले तो कोई नहीं हरा सकता।
आजादी से पहले हॉकी के लिए जाना जाता था भारत
खेल महत्व से बनता है। खिलाड़ियों से बनता है। ध्यानचंद ने 1928 के ओलम्पिक से सिक्का जमा दिया था।उसके बाद लगातार गोल्ड मैडल आए। आजादी से पहले जब हमारे पास कुछ नहीं था तो हॉकी के लिए हमने भारत को बहुत बड़ा प्लेटफॉर्म दिया जिसे भारत संभाल नहीं पाया। गुलामी से पहले हमने हॉकी का लोहा मनवाया इस कारण इसे पूरे विश्व ने अपनाया और इसे राष्ट्रीय खेल माना गया। मुझे याद है उस मैच कि बात जब हिटलर उस मैच को देख रहा था और मेजर ध्यानचंद और उनके भाई ने नंगे पैर खेल कर विपक्ष की टीम पर आठ गोल दाग दिए। पहले सुविधाएं नहीं थी लेकिन मैडल थे। अब सुविधाएं है मैडल नहीं है। आजादी से पहले भारत का हॉकी में नाम था। क्योकि उस समय खिलाड़ी चांदनी रात और धूप में खेलते थे।
अशोक कुमार ने अपनी यादे ताजा करते हुए कहा कि जब 1975 में मलेशिया पहुंचा तो होटल के दरवाजे पर विश्वकप रखा देख कर अपने आप से कमिटमेंट किया कि इस बार इस कप को जीतना है। यह मौका है कुछ करने का तो। आखिरी समय तक बस वहीं दिमाग में था। 1973 में हम यह जीतते जीतते हार गए थे। वह भी ऐसे में जब 2 गोल से हम लीड में थे। लेकिन 1973 के सडन एक्स्ट्रा टाइम में भारत को मिला वह पेन्लटी कॉर्नर जो भारत से मिस कर दिया था वह मेरी आंखों में घूम रहा था। तो सोचा की 1973 जैसी गलती अब नहीं करनी है।
समय पूरे होता होता दागा आखिरी गोल
अशोक कुमार कहते है कि होटल में पहुंचने के साथ ही 1975 में मैंने खुद से वादा किया कि इस ट्रॉफी को यहां से लेकर जाना है। हमारी टीम ने फाइनल में पाकिस्तान के खिलाफ 1-1 से बराबरी पर चल रही थी। इसके बाद मेरे गोल से हमने मैच 2-1 से जीता। अंतिम क्षण में जैसे ही बॉल मेरे पास आई तो मैने विपक्ष के खिलाड़ियों को मात देते हुए एक गज की दूरी से विजय ने मुझे पास देते हुए बॉल को फिर से मेरी तरफ फेंका और मैने उस बॉल को फिलक कर गोल दाग दिया। अंपायर की विसल बजी और गोल भारत के पक्ष में गया। इसके बाद पाकिस्तान की टीम ने शिकायत भी कि समय पूरा हो चुका है लेकिन अंपायर ने गोल को हमारे पक्ष में दिया और हम मैच जीत गए।
यह टीम गेम है एकजुट होकर खेलों तो जीत निश्चित है
ध्यानचंद के गुरू बालासाहब एक बात कहा करते थे कि हॉकी टीम गेम है। कोई भी अकेला इस खेल को नहीं खेल सकता है। अब जो भारत की टीम खेल रही है उनसे यही कहना चाहूंगा कि हॉकी टीम गेम है एकजुट होकर खेलों तो जीत निश्चित है। एक दूसरे से कॉर्डिनेशन से खेले तो कोई नहीं हरा सकता।
आजादी से पहले हॉकी के लिए जाना जाता था भारत
खेल महत्व से बनता है। खिलाड़ियों से बनता है। ध्यानचंद ने 1928 के ओलम्पिक से सिक्का जमा दिया था।उसके बाद लगातार गोल्ड मैडल आए। आजादी से पहले जब हमारे पास कुछ नहीं था तो हॉकी के लिए हमने भारत को बहुत बड़ा प्लेटफॉर्म दिया जिसे भारत संभाल नहीं पाया। गुलामी से पहले हमने हॉकी का लोहा मनवाया इस कारण इसे पूरे विश्व ने अपनाया और इसे राष्ट्रीय खेल माना गया। मुझे याद है उस मैच कि बात जब हिटलर उस मैच को देख रहा था और मेजर ध्यानचंद और उनके भाई ने नंगे पैर खेल कर विपक्ष की टीम पर आठ गोल दाग दिए। पहले सुविधाएं नहीं थी लेकिन मैडल थे। अब सुविधाएं है मैडल नहीं है। आजादी से पहले भारत का हॉकी में नाम था। क्योकि उस समय खिलाड़ी चांदनी रात और धूप में खेलते थे।
एस्ट्रोटर्फ की कमी है हार का कारण
हम पहले नैचुरल घास पर खेलते थे। 1976 ओलम्पिक में नैचुरल घास के मैदान को हटा कर एस्ट्रोटर्फ मैदान पर खेल शुरू किया गया। जिसके बाद से हम पिछड़ते गए। 1980 के ओलम्पिक के बाद तो हमने गोल्ड मैडल भी नहीं जीता। आज एस्ट्रोटर्फ ही नहीं है। पूरे देश में केवल 40 ही एस्ट्रोटर्फ है। राजस्थान में तो सिर्फ दो ही है। वहीं स्कूल कॉलेज में बच्चा सबक पढ़ता है वहां खेल का पाठ ही नहीं हैं। ऐसे में आज हम पिछड़ रहे है। सरकारों को वर्तमान तकनीक के साथ खेल सुविधाओं पर ध्यान देने की जरूरत है।
हम पहले नैचुरल घास पर खेलते थे। 1976 ओलम्पिक में नैचुरल घास के मैदान को हटा कर एस्ट्रोटर्फ मैदान पर खेल शुरू किया गया। जिसके बाद से हम पिछड़ते गए। 1980 के ओलम्पिक के बाद तो हमने गोल्ड मैडल भी नहीं जीता। आज एस्ट्रोटर्फ ही नहीं है। पूरे देश में केवल 40 ही एस्ट्रोटर्फ है। राजस्थान में तो सिर्फ दो ही है। वहीं स्कूल कॉलेज में बच्चा सबक पढ़ता है वहां खेल का पाठ ही नहीं हैं। ऐसे में आज हम पिछड़ रहे है। सरकारों को वर्तमान तकनीक के साथ खेल सुविधाओं पर ध्यान देने की जरूरत है।