सवाई जयसिंह ने गढ़ गणेश और माधोसिंह प्रथम ने मोती डूंगरी गणेशजी मंदिर बनवाया, लेकिन लालडूंगरी मंदिर को एक साधारण ब्राह्मण ने बनाया। पांच फीट ऊंचे सीधी सूंड के दक्षिणमुखी गणेशजी एक हाथ में फरसा और दूसरे में गदा लिए योग मुद्रा में विराजे हैं। विशाल वट वृक्ष और बावड़ी के अवशेष मंदिर की पौराणिकता के गवाह हैं।
अद्वेत परम्परा के घनश्यामपुरी महाराज तपस्या करने लगे तब आमेर महाराजा से भोग पेटे पांच रुपए चार आने 9 पाई मिलने लगी। इनके बाद स्वामी ज्ञानपुरी, प्रेमपुरी, गंगापुरी, धीरजपुरी, आनन्दपुरी, स्वामी योगानन्द, त्यागानंद, संतोषपुरी और गणेशपुरी की तपस्या ने मंदिर को देश में विख्यात किया। व्यवस्थापक दिनकर तैलंग के मुताबिक संतोषपुरी महाराज ने 5 दिसम्बर,1969 को गणेश सचिदानन्द ट्रस्ट स्थापित किया।
बिहार के आनन्दपुरीजी ने आमेर में 12 साल देवी व भैरव की उपासना के बाद लाल डूंगरी में तपस्या कर समाधि ली। धीरजपुरीजी की सिद्धियों से प्रभावित खेतड़ी राजा शिवनाथ सिंह, दारोगा रामचन्द्र व शिव नारायण सक्सेना जैसे लोग इनके शिष्य बने। परमहंस अद्वेतानंद बिहार के छपरा से आए। वे तुलसीराम पाठक के पुत्र थे और काशी के केदार घाट मेंपरमहंस महाराज से ब्रह्म विद्या की दीक्षा ली थी। संतों के सरताज अद्वेतानन्दजी के एक दांत पर समाधि बनी, जिस पर सैशन जज मुंशी मथुरा प्रसाद कायस्थ ने दोहे लिखवाए।
स्वामी श्रद्धानंद ने जम्मू व मथुरा में एवं स्वरूपानन्द महाराज ने मध्यप्रदेश व मेरठ में निर्गुण भक्ति की साधना के आश्रम बनाए। स्वामी अखंडानन्द महाराज की समाधि जलमहल के सामने कागदीवाड़ा में हैं। स्वामी विशुद्धानंद के बाद त्यागानन्द व गणेशपुरी महाराज हुए। स्वामी योगानन्दजी ने मथुरा के अद्वेत आश्रम में समाधि ली। अद्वेतानन्द तो केवल तीन चम्मच दूध लेते रहे और वे 10 जुलाई 1919 को ब्रह्मलीन हुए।