बचपन से मुझे गाय पसन्द है। गाय तब से घर में थी, जब मैं बहुत छोटी थी। चालीस साल हो गए, गाय की जान मुझमें बसती है और मेरी जान गाय में। प्यार से मैं उसे ‘ज्ञानू’ कहती हूं। अब तो रिटायर हूं लेकिन सरकारी नौकरी में रही तब भी मैंने गाय की बराबर देखभाल की। वह 6 से 8 लीटर तक दूध देती थी लेकिन मेरा मकसद कमाई का नहीं था। पिछले साल मार्च में ‘ज्ञानू’ घर से निकलकर बलाई बस्ती में चली गई थी। वहां से नगर निगम की पशु प्रबंधन शाखा के कर्मचारी उसे पकड़ ले गए। उसे नियमानुसार छुड़ाने के लिए नगर निगम पहुंची तो गौशाला उपायुक्त ने कहा कि हिंगोनिया गौशाला जाओ। वहां मैं लगातार 7 दिन तक गई, बाड़ों में खंगालती रही लेकिन मेरी गाय नहीं दिखी। बूढ़ी हूं मगर अपनी गाय में मेरी जान बसती है, उसे छोड़ कैसे दूं? कभी नगर निगम की पशु प्रबंधन शाखा तो कभी हिंगोनिया गौशाला में चक्कर लगाती रही। इस उम्मीद में कि मेरी ‘ज्ञानू’ मुझे मिल जाए। अधिकारी-कर्मचारी यही जवाब देते रहे कि हमें पता नहीं, आपकी गाय कहां है। सालभर से चक्कर लगाते-लगाते कई लोग तो मुझे पहचानने लगे हैं। देखते ही सवाल करते हैं, आपको आपकी गाय मिली या नहीं?
इस बीच कुछ लोगों से पता चला कि नगर निगम के कुछ कर्मचारी गलता गेट पर रहते हैं, मेरी गाय उन्हीं के पास है। तो मैं गलता गेट क्षेत्र के चक्कर लगाने लगी। रोजाना वहां जाती, गली-मोहल्लों में गाय ढूंढती। आखिर नगर निगम के एक कर्मचारी के घर मेरी गाय बंधी मिली। मैंने पूछा तो उसका जवाब था, मैं तो इसे खरीदकर लाया हूं। गाय को तलाश करने पर मैं काफी पैसा खर्च कर चुकी हूं। लेकिन जिस व्यक्ति के पास मेरी गाय है, वह लौटाने को तैयार नहीं है।
मोहरीदेवी को यह आशंका सड़कों पर जगह-जगह जानवर दिखते हैं लेकिन नगर निगम के कर्मचारी उन्हें नहीं ले जाते। मेरी गाय को दुधारू देखकर उठा ले गए। हिंगोनिया गौशाला भेजने की बजाय कर्मचारियों ने गाय बेच दी।
मुझे मेरी गाय चाहिए
मोहरीदेवी कहती हैं, बहुत भटकी हूं। बहुत पैसे भी खर्च हो गए। गाय तो मैंने ढंूढ ली, अब नगर निगम मुझे गाय लौटाए।