कामरेड मल्होत्रा के चुनाव प्रचार में पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु और त्रिपुरा के तत्कालीन मुख्यमंत्री नृपेन चक्रवर्ती आए थे। सदर और सुरक्षा संस्थानों के गढ़ रांझी में इनकी कई छोटी, बड़ी और नुक्कड़ सभाएं रखी गईं। मुझे याद है कि रांझी की सभा में मैदान लाल झंडों से पट गया था। फैक्टरी के कामगार साइकिलों में लाल झंडा लगाकर पहुंचे थे। समूचा इलाका कामरेड मल्होत्रा को लाल सलाम के नारे से गूंज रहा था। दरअसल, जबलपुर की सदर सीट के अंतर्गत पांच सुरक्षा संस्थान थे। उन दिनों श्रमिकों की संख्या एक लाख से कम नहीं रही होगी। फैक्टरी की यूनियनों में लाल झंडा यानी कम्युनिस्ट समर्थकों का बोलबाला था। तीन चौथाई श्रमिक लाल झंडे वाले थे।
भारी मतों से हारे
1985 में सदर से सेठ गोविंददास के पौत्र बाबू चंद्रमोहन दास कांग्रेस के उम्मीदवार थे। भाजपा ने छात्रनेता दिलीप यादव को मैदान में उतारा था। कामरेड मल्होत्रा को लाल सलाम कहने वाले मतदान के दिन कांग्रेस के बूथों पर टूटे पड़े। सीपीएम के तो बूथ थे न एजेंट। परिणाम आया तो चंद्रमोहन भारी मतों के अंतर से विजयी हुए। दो-दो मुख्यमंत्रियों के चुनाव प्रचार का परिणाम यह था कि कामरेड मल्होत्रा वोटों का पांच हजार का आंकड़ा भी नहीं छू पाए। जमानत जब्त हो गई। इस घटनाक्रम के बाद मेरी धारणा पुख्ता हो गई कि चुनावों में विचारधाराएं तेल लेने चली जाती हैं।
सी पीएम और कामरेड मल्होत्रा की सभाओं में जिस तरह भीड़ जुट रही थी, उससे एक रिपोर्टर के नाते धारणा बनी कि मल्होत्रा जीतेंगे या मुकाबले में रहेंगे। मेरी रिपोर्ट देखकर सीनियर हंसने लगे। मैं समझ नहीं पाया तो वे बोले- यार विचारधारा गई तेल लेने। जानते हो उनसे बड़े नेता कामरेड महेंद्र वाजपेयी जबलपुर शहर की सीट से लड़ते आए तो उन्हें आजतक डेढ़ हजार से ज्यादा वोट नहीं मिल पाए। वहां से तो ‘बखरी’ का कुत्ता-बिल्ली भी खड़ा हो जाए तो जीत जाएगा। जबलपुर में बखरी का मतलब सेठ गोविंददास का घराना है। गोविंददास आजादी के बाद से 1974 तक जबलपुर के सांसद रहे।
प्रत्याशियों का किस्सा