हालांकि समय के साथ प्रचार का तरीका भी तेजी से बदल रहा है। हो सकता है कि आने वाले दौर में नुक्कड़़ सभाओं का दौर भी खत्म हो जाएं। पहले जहां गांव व गली-मोह्ललों में ढोल-नगाड़ों के साथ प्रचार किया जाता था। प्रत्याशी के आने की सूचना भी कुछ इसी अंदाज में दी जाती थी। गलियां बैनर-पोस्टर से पाट दी जाती थी लेकिन अब ऐसा कम दिखता है। चुनाव आयोग के डंडे में प्रचार सिमट कर रह गया है। अब तो हालात ऐसे हैं कि कई बार तो यह तक पता नहीं चल पाता कि प्रमुख पार्टियों से उम्मीदवार कौन है। निर्दलीय एवं छोटे दलों के उम्मीदवारों की जानकारी तो रिजल्ट के बाद पता चलती है।
चुनावी शोरगुल जो छह महीने पहले शुरू होता था वह एक महीने में सिमटने लगा है। चुनाव शांतिपूर्ण माहौल में होने लगे हैं। अब चुनावी शोर से मुक्ति मिली है। हालांकि इससे कई लोगों का रोजगार भी छिन गया है। पहले जहां पेंटरों को चुनावी साल में रोजगार मिल जाता था। वह अब लगभग बन्द हो गया है। बैनर-पोस्टर भी कम छपते हैं। ऐसे में अन्य लोगों के रोजगार पर भी असर पड़ा है।
हुब्बल्ली प्रवासी राजस्थान के बालोतरा जिले के गोलिया चौधरियान निवासी किशोर पटेल कहते हैं, पहले के दौर में मिल-बैठकर फैसले तय किए जाते थे। गांव में बड़े-बुजुर्ग सभी की सलाह-मशविरा से यह तय करते थे कि वोट किसे दिया जाएं। अब डिजिटल मीडिया के युग में बात की सच्चाई लगाना भी मुश्किल हो गया है। कई बार आरोप-प्रत्यारोप लगाकर वास्तविकता से दूर भ्रमित प्रचार किया जाता है। मौजूदा समय में साफ-सुथरी एवं स्वच्छ राजनीति खत्म होती जा रही है। अवसरवादी एवं दलबदलुओं का बोलबाला बढ़ रहा है।