मीडिया रिपोर्टस और कश्मीर के ऊपर लिखी गई किताबों की माने तो मोहम्मद युसुफ शाह साल 1987 में सत्ता के गलियारों में चलकर सरकार बनाने की तैयारी में लगा था। लेकिन फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि सियासी नारों के शोर को गोलियों और बम की गूंज ने नीचे दबा दिया। सम्भव था कि अगर चुनाव होता तो आतंक का सरगना सैयद सलाहुद्दीन और उसका साथी यासीन मलिक और एजाज डार आज भारतीय राजनीति में अपनी दखल दे रहे होते।
इस चुनाव के बाद मतगणना में जमकर धांधली हुई थी जिसके चलते 1987 में ही बनी मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट को करारी हार का सामना करना पड़ा, जबकि जिस तरह से इस पार्टी को वहां की आवाम का समर्थन मिल रहा था उस लिहाज से पार्टी का जीतना तय था। लेकिन चुनाव में इस पार्टी को सिर्फ 4 सीटें ही मिल सकीं। जबकि नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस के गठबंधन ने चुनाव में 63 सीटें हासिल की। इतना ही नहीं मतगणना के परिणाम आने के बाद ही सलाहुद्दीन और यासीन मलिक को बिना किसी गलती के जेल में डाल दिया गया।
चुनाव में हुई गड़बडियों के चलते और फारुक अब्दुल्ला की सरकार बनते ही कश्मीरी नौजवानों ने आतंकवाद के रास्त की ओर अपने कदम बढ़ा लिए। इतना ही नहीं राज्य में विरोध स्वरूप पत्थरबाज़ी का सिलसिला शुरू हो गया तो आज भी किसी न किसी बहाने जारी है। कई सालों बाद जब फारूक अब्दुल्ला से चुनाव में हुई धांधली के इस बारे में पूछा गया तो तो उन्होंने खीझते हुए जवाब दिया कि ‘मैं यह नहीं कह रहा कि धांधली नहीं हुई थी, लेकिन मैने नहीं करवाई थी।’
चुनाव के कुछ समय बाद अचानक से एक दिन सैयद सलाहुद्दीन अपने घर से गायब हो गया और हिज्बुल मुजाहिद्दीन के ग्रुप में शामिल हो गया। इसके बाद घाटी के लोग पहली बाह सीमा पार जाकर आतंकी संगठनों में शामिल होने लगे। हालांकि एक इंटरव्यू में सलाहुद्दीन ने कहा कि, ‘चुनाव में धांधलियों की वजह से मेरे हथियार थामने वाली बात बिल्कुल गलत है।’ देर-सबेर कश्मीर में तो यह होना ही था। हालांकि इसके बाद भी कई लोगों का मानना है अगर धांधलियों के चलते उस समय का युसुफ शाह चुनाव नहीं हारता तो आज वह हिज्बुल मुजाहिद्दीन का सरगना सैयद सलाहुद्दीन नहीं बनता और वह भारत का सबसे बड़ा दुश्मन भी नहीं होता।