सार्दियों का समय था और नानक देव जी अपने शिष्यों के साथ बहुत सवेरे ही टहलने के लिए निकल गए। नानक देव जी के सामने एक लकड़हारा सिर पर लकड़ीयों का भारी बोझ लेकर चला आ रहा था। सर्दी के कारण लकड़हारे के पैर ठिठुर रहे थे और उसके शरीर पर ठीक से कपड़ा भी नहीं था। नानक देव जी को उस पर दया आ गई और वे अपने पुत्र से बोले, बेटा इस बेचारे लकड़हारे का कुछ बोझ तुम काम कर दो और उसे उठा कर इसके घर तक पहुंचा दो।
नानक देव जी का पुत्र संकोच में पड़ गया और धीरे से गुरू नानक देव जी से बोला, पिता जी आपके साथ इतने शिष्य है किसी ओर से कह दीजिए। मैं उन लकड़ियों के बोझ को कैसे उठा सकता हूँ। गुरू नानक देव जी ने अपने एक अन्य धनी शिष्य से कहा, बेटा तुम इस बोझ को लकड़हारे के घर तक पहुंचा दो। धनी शिष्य खुशी-खुशी लकड़हारे के बोझ को लेकर नगर की ओर चल पड़ा और उन लकड़ियों के बोझ को लकड़हारे के घर तक छोड़ आया।
गुरू नानक देव जी ने अपने पुत्र की तरफ देखते हुए कहा, बेटा जो दूसरों के बोझ को अपने सिर पर खुशी-खुशी उठा ले, वही मेरा उत्तराधिकारी हो सकता है लेकिन गुरू नानक देव का पुत्र ना माना और अपने पिता से कहा, नहीं पिता जी आप मुझे ही अपनी गद्दी का उत्तराधिकारी बनाना। कुछ दिनो बाद अपने रोज के नियम के अनुसार गुरू नानक देव जी प्रात:काल टहलने के लिए नगर के बीच से गुज़र रहे थे। नगर के बगल में ही एक नाला बह रहा था। अचानक ही नानक देव फिसल गये और उनकी खड़ाऊँ नाले में जा गिरी। नानक देव जी ने अपने बेटे की तरफ देख कर कहा, बेटा मेरा खड़ाऊँ निकाल दो। नानक देव जी के पुत्र अपने पिता से बोले, पिता जी मेरे सब कपड़े गंदे हो जायेंगे किसी ओर से बोल दीजिए।
गुरू नानक देव जी ने यह सुन कर तुरन्त अपने एक शिष्य से कहा कि मेरी खड़ाऊँ तो निकाल दो भाई। यह सुनते ही एक शिष्य दौड़कर उस गंदे नाले में कूद गया और नानक देव जी की खड़ाऊँ निकाल कर साफ पानी से धोकर अपने मस्तक से लगाने के बाद उसने गुरु के चरणों के आगे रख दिया और एक किनारे खड़ा हो गया। अन्त में गुरू नानक देव जी ने पुत्र से कहा, बेटा में तुमको एक अनमोल सीख देता हूँ, जो दूसरों का बोझ उठाए और गन्दगी को धोकर उसे साफ और निर्मल बना दे, वही मेरी गद्दी का उत्तराधिकारी हो सकता है। अन्य कोई नहीं चाहे वह मेरा बेटा ही क्यों न हो।