बच्चे यहां रोज अपने माता-पिता के साथ पढऩे आते हैं। ‘शहीद भगत सिंह पुस्तकालय’ को न तो किसी नामी-गिरामी व्यापारिक घराने से कॉरपोरेट सामाजिक दायित्व (CSR) के तहत मदद मिलती है और न ही किसी गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) के संसाधनों का लाभ ही मिला है। फिर भी, यह एक मिशन है, जिसका लक्ष्य समाज के कमजोर तबके के बच्चों के जीवन में शिक्षा के माध्यम से बदलाव लाना है। भगत सिंह, सफदर हाशमी और अन्य शहीदों के संदेशों से पुस्तकालय की दीवारें अटी पड़ी हैं। कमरे के बाहर एक बोर्ड पर लिखा है- बेहतर जिंदगी की राह बेहतर किताबों से होकर गुजरती है।
कारखाना मजदूरों के बच्चों के सुनहरे भविष्य की कामना के साथ इस मिशन के सूत्रधार बने लखविंदर सिंह ने कहा, हमने अप्रैल में इस पुस्तकालय की स्थापना की। यह पूर्ण रूप से लुधियाना के औद्योगिक इकाइयों में काम करने वाले उन कामगारों और मजदूरों के प्रयासों का परिणाम है, जो आसपास के एलआईजी फ्लैट्स और राजीव गांधी कॉलोनी में रहते हैं। पुस्तकालय की स्थापना कारखाना मजदूर यूनियन के तत्वावधान में मजदूरों से इकट्ठा किए गए धन से की गई है। मजदूरों ने इसमें 100 रुपए से लेकर 5000 रुपए तक का योगदान दिया है, जबकि अधिकांश मजदूरों की मासिक आय 10,000 रुपए से भी कम है।
लखविंदर (33) ने चंडीगढ़ के केंद्रीय संस्थान से डाइ और मोल्ड निर्माण में डिप्लोमा हासिल किया है। वह 2006 से यहां निवास कर रहे हैं, और इस पुस्तकालय परियोजना के वहीं सूत्रधार हैं। उनकी शादी हो चुकी है, लेकिन उनका कोई बच्चा नहीं है। लखविंदर ने कहा, हमने हर काम छोटे स्तर पर शुरू किया। हमें सरकार या किसी कॉरपोरेट से कोई धन नहीं मिला है। यहां आने वाले बच्चों पर भी इसके लिए दबाव नहीं डाला जाता है। वे खुद यहां आते हैं और यहां की शिक्षण शैली को पसंद करते हैं।
लुधियाना एशिया की बड़ी औद्योगिक नगरी में शुमार है। यहां की आबादी 35 लाख है। साइकिल उद्योग, कपड़ा उद्योग, ऑटो पाट्र्स निर्माण और अनेक अन्य कारोबारों के लिए यह शहर मशहूर है। ज्यादातर मजदूर यहां दूसरे प्रांतों से आए हैं। खासतौर से उत्तर प्रदेश और बिहार से। वे यहां दशकों से निवास कर रहे हैं। पुस्तकालय रोजाना शाम चार बजे से सात बजे तक खुला रहता है। यहां बच्चे पढऩे के लिए रोज आते हैं। स्वयंसेवी शिक्षक कृष्ण कुमार व्यावहारिक संकल्पनाओं का इस्तेमाल करते हैं, जिनमें फिल्में दिखाना, जागरूकता पैदा करना और शिक्षा प्रदान करना शामिल है। पुस्तकालय में हिंदी और पंजाबी भाषा की 500 से अधिक किताबें हैं, जो लोहे की आलमारियों में रखी हुई हैं।
सरकारी स्कूल में छठी कक्षा में पढऩे वाले छात्र अर्जुन (12) ने कहा, पुस्तकालय में हमारे कई मित्र बनते हैं। यह परिवार की तरह है। लखविंदर ने बताया कि अधिकांश बच्चों के माता-पिता सातवीं से ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं या निरक्षर हैं। लेकिन अपने बच्चों को अपने जैसा नहीं रखना चाहते हैं। उन्होंने कहा, कमरे में 30 बच्चे आ सकते हैं। कभी-कभी हमें रोक लगाना पड़ता है, क्योंकि ज्यादा बच्चे कमरे में नहीं आ सकते हैं।
उन्होंने बताया, पुस्तकालय का सालाना शुल्क 50 रुपए है, जिसमें बच्चों को एक पुस्तकालय कार्ड दिया जाता है। बच्चे इस कार्ड पर एक बार में दो किताबें अपने घर ले जा सकते हैं। बच्चे यहां आना पसंद करते हैं, क्योंकि उनको खुल कर अपनी बात रखने की आजादी होती है। साथ ही उनको शिक्षा प्रदान की जाती है। यहां आने वाले बच्चों में भी अपने कार्य के प्रति काफी उत्साह दिखता है। सातवीं कक्षा की छात्रा खुशी (13) ने बताया, यहां आना बेहद अच्छा और स्फूर्तिदायक है, क्योंकि यहां की पढ़ाई काफी मजेदार है। यह पुस्तकालय अपने तरीके से बच्चों के जीवन में बदलाव ला रहा है।