इसके बाद अदालत कुछ देर के लिए स्थगित कर दी गई। करीब डेढ़ घंटे फैसले की प्रति तैयार कराई गई। रात सवा 8 बजे इसके प्रिंट निकाले गए। इसी बीच न्यायाधीश ने दोषियों के फिंगर प्रिंट लेने के निर्देश दिए। रात साढ़े ८ बजे अदालत ने स्पष्ट कर दिया कि आरोपी को फांसी दी जाएगी। न्यायाधीश ने फैसले में कहा है कि जब तक मृत्युदंड को हाईकोर्ट पुष्टि नहीं करता तब तक आरोपी को सेंट्रल जेल दुर्ग में रखा जाए।
अपील नहीं होने की दशा में साक्ष्य को नष्ट करने का आदेश दिया है। साथ ही न्यायाधीश ने फैसले में कहा है कि बर्बतापूर्वक दुष्कर्म व हत्या की हत्या से परिजन की वेदना को धन से कम नहीं किया जा सकता। परिजन ने साढ़े पांच वर्ष की अबोध बालिका को खोया है। इसलिए जिला विधिक प्राधिकरण प्रतिकर सुनिश्चित कर शासन को पत्र लिखे।
न्यायाधीश शुभ्रा पचौरी ने 140 पृष्ठ के फैसले में लिखा है कि रामा सोना ने अपनी प्रतिरक्षण करने में अपूर्ण अक्षम एक साढे पांच वर्ष की मूक-बधिर अबोध बच्ची से दुष्कर्म किया है। यह क्रूरतम रूप से की जानी वाली गंभीर घटना है। घटना जिस तरह से हुई है वह समाज के लिए घातक है। यह प्रकरण विरल से विरलतम की श्रेणी में आता है, इसलिए आरोपी को मृत्युदंड दिया जाना उचित है।
सजा-ए-मौत के फैसले पर दस्तखत करने के बाद न्यायाधीश ने पेन को अलग रख दिया। इसके बाद की प्रक्रिया में उन्होंने दूसरे पेन का इस्तेमाल किया। फांसी की सजा दिए जाने के बाद कलम तोडऩे की परंपरा रही है। इस पेन का पुन: इस्तेमाल नहीं किया जाता है।
जिला न्यायालय परिसर में सिर्फ फास्ट ट्रैक कोर्ट ही खुली थी, इसलिए परिसर में सन्नाटा था। अदालत में फैसला आने तक तीनों आरोपी दो घंटे तक अदालत में खड़े रहे। मृत्युदंड की सजा सुनकर भी रामा सामान्य बना रहा। उसको फांसी दिए जाने पर उसकी मां के चेहरे पर भी शिकन नहीं थी। इनको जेल ले जाने के लिए 20 पुलिसकर्र्मी अभिरक्षा में तैनात थे। रात को दोषियों को जेल ले जाया गया।
अतिरिक्त लोक अभियोजक पॉक्सो एक्ट कमल वर्मा ने बताया कि इस प्रकरण में कोई चश्मदीद नहीं था, लेकिन भौतिक साक्ष्य पर्याप्त था। भौतिक साक्ष्यों को हमने कड़ी से कड़ी जोड़ी इससे पुलिस की विवेचना सही साबित हुई। पंद्रह दिनों तक चले तर्क में हमने न्यायालय को बताया कि हत्या से लेकर शव को फेकने तक भौतिक साक्ष्य उपलब्ध है। इसे न्यायालय ने सही माना।
आरोपियों को मृत्यु दंड की सजा देने के लिए मनोज भाऊ व अन्य विरुद्ध महाराष्ट्र 1999, रतन सिंह विरुद्ध मध्यप्रदेश 1997, पारस विरुद्ध मध्यप्रदेश 2008, कांशीनाथ मंडल विरुद्ध पश्चिम बंगाल 2013, सुरेश व अन्य विरुद्ध हरियाणा 2014 का साइटेशन प्रस्तुत किया था। न्यायाधीश ने हमारे तर्क को सही ठहराया। आरोपी को मृत्युदंड की सजा दी।
बच्ची सामान्य नहीं थी, इसलिए परिवार ही नहीं, आसपास के लोग भी उसका बहुत ध्यान रखते थे। अहसास भी नहीं था कि कोई उसके साथ इतना घृणित कृत्य करेगा। आरोपी को फांसी की सजा मिलनी चाहिए। उसके घरवालों को भी सख्त सजा मिले, क्योंकि उन्होंने वारदात को छुपाया और आरोपी के भागने में मदद की।