किसी जमाने में जिला अस्पताल के बाहर ऑटो नंबर 16 की खूब डिमांड थी। मसला यह नहीं था कि उसमें भाड़ा कम लगता, कारण यह था कि जो उस ऑटो को चलाता वह डॉक्टर बनने की इच्छा रखता था, जो अपने ऑटो में बैठे मरीज और उनके परिजन से बीमारी के बारे में चर्चा करता और इतने में टाइम पास होकर वे अस्पताल पहुंच जाते। ऑटो नंबर १६ आज के डॉक्टर और तब के मेहनतकश युवा गिरिराज भूर्रा चलाते थे। मेहनत मजदूरी का नाम सफलता होती है आखिर डॉक्टर बनकर भूर्रा ने यह साबित कर दिखाया। पारिवारिक गरीबी के कारण गिरिराज को पढ़ाई की रकम के लिए मेहनत मजूदरी करना पड़ती थी। डॉ. भूर्रा ने बताया कि दिनभर मेहनत करने के बाद जब वे पढ़ाई करते थे तब पिता सुखराम और मां श्यामा बाई उन्हें खूब मदद करते थे। हालांकि पिता को यह उम्मीद नहीं थी कि बेटा डॉक्टर बन जाएगा, लेकिन मां को पूरा भरोसा था कि बेटा एक दिन इतना नाम कमाएगा कि परिवार की स्थिति ही बदल जाएगी। दरअसल डॉ. भूर्रा के परिवार में सभी मेहनत मजदूरी करते हैं और कोई इतना पढ़ालिखा नहीं है।
डॉक्टर भूर्रा ने बताया कि जब वे ऑटो चलाते थे तो अकसर उनका काम ऑटो से कई मरीजों को अस्पताल लाने का होता था। मरीजों के मुंह से डॉक्टर के प्रति प्रेम और डॉक्टरों की प्रतिष्ठा देखकर ही उनमें डॉक्टर बनने की लालसा जागी। डॉ. भूर्रा निश्चेतना प्रभारी हैं, जिनको मृत्यु दर कम करने हेतु किए गए उत्कृष्ठ कार्य के लिए सम्मानित किया गया।