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mp election 2018: पहले के चुनावों की कहानी, बुजुर्गों की जुबानी, देखें वीडियो, पढ़ें पूरी खबर

locationछिंदवाड़ाPublished: Nov 12, 2018 11:54:58 am

Submitted by:

ashish mishra

लम्बा बदलाव देख चुकी पुरानी पीढ़ी के लोग आज के चुनाव प्रचार में अपनाए जाने वाले तरीकों पर हैरान हैं।

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mp election 2018: पहले बिना लाउडस्पीकर होता था प्रचार, काम आता था सद्व्यवहार


छिंदवाड़ा. वक्त का लम्बा बदलाव देख चुकी पुरानी पीढ़ी के लोग आज के चुनाव प्रचार में अपनाए जाने वाले तरीकों पर हैरान हैं। प्रचार के नाम पर ज्यादा से ज्यादा गाडिय़ों की दौड़़, कानफोडू शोर उन्हें चौंकाता है। ‘पत्रिका’ से अपने अनुभव साझा करते हुए अधिकांश बुजुर्गों ने कहा कि पुराने दौर में न तो उम्मीदवारों की लम्बी फेहरिस्त होती थी और न ही प्रचार के नाम पर इतने बड़े खर्चे। उम्मीदवार का चेहरा भी हम हमेशा देखा करते थे। वह चुनाव के दौरान ही नहीं बल्कि पहले भी घर-घर आकर हालचाल लिया करते थे। चुनाव में उम्मीदवार एक दो कार्यकर्ताओं के साथ साइकिल से पहुंचते थे। उम्मीदवारों को हर एक घर के मुखिया का नाम पता रहता था। वे पैदल सम्पर्क और सभाओं से मतदाताओं का ध्यान अपनी ओर खींचते थे। उनकी सादगी, सद्व्यवहार और उनके जरिए भविष्य में विकास की उम्मीद जीत का आधार बनती थी। मतदाता भी उसूलों को अहमियत देते थे। दिखावे के फेर में आने की जगह व्यक्तित्व पहली पसंद बनता था। आज के जमाने में इसका उल्टा है। आज उम्मीदवार चुनाव के समय मतदाता के घर पहुंचता है वह भी लग्जरी गाड़ी में सैकड़ों कार्यकर्ताओं के साथ।
बैलगाड़ी से जाते थे वोट देने
बनगांव निवासी 65 वर्षीय धीरन डेहरिया कहते हैं पहले के समय में मतदान के लिए लोग जोश के साथ खुद मतदान के लिए जाते थे। ज्यादातर लोग पैदल ही मतदान केंद्रों तक पहुंचते थे। ज्यादा लम्बी दूरी और चलने में असमर्थ लोगों के लिए बैलगाड़ी की मदद ली जाती थी। अब तो धुआं छोड़ते वाहनों का काफिला दिखाई देता है। वहीं ६२ वर्षीय तुलसीराम कहते हैं कि समय के साथ काफी कुछ बदला है। चुनाव के तौर तरीके भी बदल गए हैं। हालांकि उस समय माहौल अलग ही हुआ करता था। कुछ दशक पहले तक चुनाव में सीमित संख्या में प्रत्याशी होते थे। अब तो चुनाव के समय कई नई पार्टियों के नाम सुनने को मिलते हैं।
नेता जो कहते थे, वह करते थे
लिंगा निवासी 82 वर्षीय तुलाराम शास्त्री कहते हैं कि पहले के चुनाव में ज्यादा खर्च नहीं होता था। प्रत्याशी साइकिल से या फिर पैदल ही मतदाता के घर पहुंचते थे। हर एक प्रत्याशी को हर घर के मुखिया का नाम जरूर पता होता था। प्रत्याशी की छवि से जन्म लेने वाला बेहतर काम का भरोसा उन्हें जिताता था। वहीं 75 वर्षीय संतोष काले कहते हैं कि पहले चुनाव में प्रत्याशियों की विश्वसनीयता ही उनकी ताकत होती थी। वे जो कहते थे, वह करते थे। हारे उम्मीदवार भी अपने वादे पूरे कराने के लिए जूझते थे। अब चुनाव में प्रत्याशी वादों की झड़ी लगा देते हैं, जबकि जीतने पर खोजना पड़ता है। 78 वर्षीय एकनाथ कहते हैं कि पहले प्रत्याशी की आवाज में खनक होती थी। वह जहां खड़े हो जाते वहीं सभा हो जाया करती थी। आत्मविश्वास के साथ वह मतदाताओं से अपनी बात कहते थे। आज लाउडस्पीकर के शोर के साथ प्रचार-प्रसार होता है।
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