बनगांव निवासी 65 वर्षीय धीरन डेहरिया कहते हैं पहले के समय में मतदान के लिए लोग जोश के साथ खुद मतदान के लिए जाते थे। ज्यादातर लोग पैदल ही मतदान केंद्रों तक पहुंचते थे। ज्यादा लम्बी दूरी और चलने में असमर्थ लोगों के लिए बैलगाड़ी की मदद ली जाती थी। अब तो धुआं छोड़ते वाहनों का काफिला दिखाई देता है। वहीं ६२ वर्षीय तुलसीराम कहते हैं कि समय के साथ काफी कुछ बदला है। चुनाव के तौर तरीके भी बदल गए हैं। हालांकि उस समय माहौल अलग ही हुआ करता था। कुछ दशक पहले तक चुनाव में सीमित संख्या में प्रत्याशी होते थे। अब तो चुनाव के समय कई नई पार्टियों के नाम सुनने को मिलते हैं।
लिंगा निवासी 82 वर्षीय तुलाराम शास्त्री कहते हैं कि पहले के चुनाव में ज्यादा खर्च नहीं होता था। प्रत्याशी साइकिल से या फिर पैदल ही मतदाता के घर पहुंचते थे। हर एक प्रत्याशी को हर घर के मुखिया का नाम जरूर पता होता था। प्रत्याशी की छवि से जन्म लेने वाला बेहतर काम का भरोसा उन्हें जिताता था। वहीं 75 वर्षीय संतोष काले कहते हैं कि पहले चुनाव में प्रत्याशियों की विश्वसनीयता ही उनकी ताकत होती थी। वे जो कहते थे, वह करते थे। हारे उम्मीदवार भी अपने वादे पूरे कराने के लिए जूझते थे। अब चुनाव में प्रत्याशी वादों की झड़ी लगा देते हैं, जबकि जीतने पर खोजना पड़ता है। 78 वर्षीय एकनाथ कहते हैं कि पहले प्रत्याशी की आवाज में खनक होती थी। वह जहां खड़े हो जाते वहीं सभा हो जाया करती थी। आत्मविश्वास के साथ वह मतदाताओं से अपनी बात कहते थे। आज लाउडस्पीकर के शोर के साथ प्रचार-प्रसार होता है।