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संसार के चक्रव्यूह से लौटना भी आना चाहिए: कथाचार्य

locationछतरपुरPublished: Oct 17, 2019 01:58:45 am

रामकथा का श्रवण करने पहुंचे लोग

संसार के चक्रव्यूह से लौटना भी आना चाहिए: कथाचार्य

संसार के चक्रव्यूह से लौटना भी आना चाहिए: कथाचार्य

छतरपुर. भगवान के प्रभाव और स्वभाव पर श्रीराम किंकर विचार मिशन ट्रस्ट के अध्यक्ष मैथिलीशरण भाई ने चौथे दिन की रामकथा सुनाते हुए कहा कि प्रवृत्ति से भी अधिक महत्वपूर्ण निवृत्ति होती है। संसार में प्रवृत्ति करना तो ठीक है पर उससे निवृत्ति करना भी आना चाहिए। रामायण में युवराज अंगद यही शंका व्यक्त करते हैं कि वह लंका पहुंच तो जाएंगे पर लौटना संदिग्ध है। महाभारत में भी अभिमन्यु की यही समस्या है कि वह द्रोणाचार्य के चक्रव्यूह में भेद तो कर सकते हैं पर वापिस लौटना नहीं जानते। भाईजी ने कहा कि संसार के चक्रव्यूह से लौट आना भी सीख लीजिए जो हनुमान जी जैसे भक्त को अच्छे से आता है। उन्होंने उदाहरण देकर कहा कि किसी भी वाहन का काम आगे ले जाना है पर उसमें ब्रेक और बैक गियर इसीलिए स्थापित किया गया है कि जब जरूरत हो तो रुकना और वापिस होना भी आना चाहिए। आज सभी मां बाप अपने बच्चों को संसार में प्रवृत्त कराना तो सिखा रहे हैं पर निवृत्ति का कोई ज्ञान नहीं दे रहे हैं। सत्संग ही ऐसा माध्यम है जो चरित्र निर्माण कराता है। उन्होंने कहा कि सद् के साथ रहने से भगवान का साथ मिलता है। उन्होंने कहा कि श्राप और वरदान दोनों ही लाभकारी और नुकसानदायक हो सकते हैं। हनुमान जी अपनी शक्ति को भूले रहने के श्राप का लाभ यह उठाते हैं कि उन्हें अपना बल और प्रभाव कभी याद नहीं रहता। वह जब भी प्रभाव बताते हैं तो भगवान का बताते हैं और उधर होलिका अपने वरदान की ताकत का दुरुपयोग कर भक्त प्रहलाद को जला देना चाहती है।
मैथिलीशरण भाई ने कहा कि लंका में सब तरह की प्रगति थी लेकिन सतसंग नहीं था। क्योंकि सतसंग में दूसरों की सुनना होती है पर अहंकारी रावण दूसरों की सुनता कहां था। जिसे अपना बल और प्रभाव याद रहता है उसे भगवान याद नहीं रह सकते। धनुषयज्ञ में परशुराम टूटे हुए धनुष को देखकर जनक जैसे ज्ञानी को जड़ अर्थात मूर्ख कह देते हैं।
उन्होंने कहा कि परशुराम जी अपने अभिमान में सम्मुख खड़े भगवान को भी भूल जाते हैं और उनकी दृष्टि अखंड ब्रम्ह की जगह खंड धनुष पर चली जाती है। भाई जी ने कहा कि संसार में आनंदित रहने का सबसे सरल उपाय है कि अपने भगवान की और दूसरों के अभिमान की पूजा करना सीख लें। क्योंकि अभिमान शून्य व्यक्ति के हृदय में भगवान का वास होता है। हनुमान जी ने जो किया वह आप भी कर सकते हैंं, बशर्ते अपना अभिमान भूल जाएं। उन्होंने कहा कि अपने अहंकार को समाप्त करना है तो अपने आदि और अंत का स्मरण कर लीजिए। भाईजी ने कहा कि युवराज अंगद द्वारा सभा में रोपे गए अपने पैर को उखाडऩे की चुनौती पाकर जब रावण अंगद का पैर पकड़ता है तो अंगद इस पर अभिमान करने की जगह उसे सलाह देते हैं कि पैर ही पकडऩा है तो भगवान का पैर पकड़ो जिससे तुम्हारा भला होगा। यही संत का स्वभाव है कि वह अपना अभिमान त्यागकर भगवान से मिलाने का रास्ता बताता है। विभीषण रावण की लात सहने के बावजूद भी उसे यही सलाह देते हैं कि राम को भजने से ही तुम्हारा हित होगा। उन्होंने कहा कि यदि आपको सबका प्रिय बनना है तो सुख और दुख में सम होना पड़ेगा, क्योंकि जीवन के बगल में सदैव मृत्यु खड़ी रहती है, यह अकाट्य तथ्य है। मैथिलीशरण भाई ने कहा कि समुद्र से सकामता और निष्कामता दोनों सीखनी चाहिए। समुद्र बहकर आने वाले सभी तरह के जल का स्वागत करता है पर उसमें एक यह भी भाव है कि उससे जो जितना लेना चाहे ले सकता है। इसी कारण वह खारे जल को भी मीठे जल के बादलों में बदल देता है।

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