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माता-पिता की भक्ति से बढ़ती है कीर्ति-मुनि संयमरत्न विजय

locationचेन्नईPublished: Aug 29, 2018 11:44:59 am

Submitted by:

PURUSHOTTAM REDDY

पवित्रता व पुण्यता के पुंज समान माता-पिता की जहां भक्ति होती है,वहां पर जैसे समुद्र के प्रति नदियां स्वत: आकर्षित हो चली आती हैं, वैसे ही उसके पास लक्ष्मी स्वत: चली आती है। जैसे हरे-भरे वृक्ष की ओर पक्षी खुद चले आते हैं, वैसे ही सुख सुविधाएं स्वत: चली आती है और पानी में जैसे कमलों की श्रेणियां फैलने लगती है, वैसे ही पितृ-भक्त का मान-सन्मान बढऩे लगता है।

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माता-पिता की भक्ति से बढ़ती है कीर्ति-मुनि संयमरत्न विजय

चेन्नई. साहुकारपेट स्थित राजेन्द्र भवन में विराजित मुनि संयमरत्न विजय, भुवनरत्न विजय ने कहा जो मानव माता-पिता के हितकारी चरणों की पूजा करता है, उसकी यश-कीर्ति चारों दिशाओं में फैलने लगती है।उसे तीर्थों की यात्रा का फल मिल जाता है, वह सज्जनों के हृदय को आनंदित करता है, उससे पाप का विस्तार दूर हो जाता है, कल्याण की परंपरा को प्राप्त करके वह अपने कुल में धर्म-ध्वजा को लहराता है। पवित्रता व पुण्यता के पुंज समान माता-पिता की जहां भक्ति होती है,वहां पर जैसे समुद्र के प्रति नदियां स्वत: आकर्षित हो चली आती हैं, वैसे ही उसके पास लक्ष्मी स्वत: चली आती है। जैसे हरे-भरे वृक्ष की ओर पक्षी खुद चले आते हैं, वैसे ही सुख सुविधाएं स्वत: चली आती है और पानी में जैसे कमलों की श्रेणियां फैलने लगती है, वैसे ही पितृ-भक्त का मान-सन्मान बढऩे लगता है। माता-पिता के मनोहर चरणों की पूजा करने से जैसी शुद्धि हमारे भीतर होती है, वैसी शुद्धि तो तीर्थों के पवित्र जल से स्नान करने से, सिद्ध प्रभु के शुद्ध जाप से, मनोहर आचरण से, शास्त्र सुनने से, लक्ष्मी का दान करने से तथा व्रतों के पालन करने से भी नहीं होती। इस कलियुग में माता-पिता की निरंतर भक्ति करना अर्थात् जंगल में देवगंगा का प्रकट होना, मनवांछित फल देनी वाली कामधेनु का दरिद्र के घर में प्रवेश करना तथा मारवाड़ की धरती पर कल्पवृक्ष की उत्पत्ति होने के समान है। जिस माता-पिता की कृपा से हमें पूर्ण अंगों के साथ जन्म मिला, हाथी के समान सुदृढ़ युवावस्था प्राप्त हुई, ऐसे माता-पिता के चरणों की सेवा सपूत अवश्य करता है। मां के गर्भ में नव मास तक रहने के कारण ही मनुष्य को मानव कहते हैं।
जीवन छोटा पर प्रशस्त हो
चेन्नई. एमकेबी नगर जैन स्थानक में विराजित साध्वी धर्मप्रभा ने कहा कि जिदंगी एक बंासुरी की भांति है जो अपने में खाली और शून्य होते हुए भी संगीत पैदा करने का सामथ्र्य लिए हुए है। यह बजाने वाले पर निर्भर करता है कि कौन कैसे बजाता है। उस पर राग के सुर गाता है या वैराग्य के। बांसुरी के दिव्य स्वर आत्मा को जगा सकते है। जीवन छोटा हो या बड़ा हो महत्व इस बात का नहीं है, महत्वपूर्ण यह है कि जीवन कैसे जिया जाता है। जीवन छोटा ही हो पर प्रशस्त जीवन जियो। यदि हमें जीवन जीने का सलीका न आया तो जीवन जीने का क्या मकसद? हम जी रहे हैं क्योंकि सांस चल रही है। एक अंधी और अंतहीन पुनरुक्ति में जीवन बीतता चला जा रहा है।
साध्वी स्नेह प्रभा ने कहा कि भोग में रोग का, कुलीन को पतन का, धनवान को राजा का, मौन में दीनता का, बल में शत्रुता का, रुप में बुढ़ापे का, शास्त्र ज्ञान में वाद विवाद का, गुणवान को दुर्जन का, शरीर धारण करने में मृत्यु का भय छिपा होता है। संसार की हर वस्तु में कोई न कोई भय जरुर छिपा होता है। लेकिन तीन लोकों में मात्र वैराग्य ही ऐसी क्रिया या भावना होती है जिसमें किसी प्रकार का भय नहीं होता है। वैराग्यवान चाहे जंगल में हो या शहर, गांव या कस्बे में हो, समूह में हो या अकेले में वह सभी जगह और सभी परिस्थितियों में प्रसन्न ही रहता है।

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